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: ३५० : सम्बोधि
भवेत् ।
श्रुतशील समापन्नः, सर्वथाऽऽराधको द्वाभ्यां विर्वाजतो लोकः, सर्वथा स्याद् विराधकः ॥ ३८ ॥
३८. जो श्रुत और शील से युक्त है वह मोक्ष मार्ग का सर्वथा आराधक है । जो श्रुत और शील दोनों से रहित है वह मोक्ष मार्ग का सर्वथा विराधक है ।
'सयं सयं उवद्वाणे, सिद्धि मेव न अन्नहा' सम्प्रदायों का यह स्वर सदा ही प्रबल रहा है। सभी यह दावा करते हैं कि मेरी सम्प्रदाय में आओ तुम्हारी मुक्ति होगी । मानो परमात्मा ने सम्प्रदायों के हाथों में प्रमाणपत्र दे दिया हो । मुक्ति का सूत्र सम्प्रदायों के पास हो सकता है किन्तु मुक्ति सम्प्रदायों में नहीं है । मुक्ति 'का अस्तित्व सबसे मुक्त है, स्वतंत्र है । सम्प्रदाय मुक्त नहीं करते, और न कोई व्यक्ति बन्धन मुक्त करता है । 'बोधि-धर्म' ध्यान परम्परा के एक महन् आचार्य हुए हैं। शिष्य ने उनसे जिज्ञासा की - 'बुद्ध का नाम लेना चाहिए या नहीं ?" कहा'नहीं'। अगर नाम मुंह में आ जाए तो कुल्ला कर साफ कर लेना चाहिए । मागं में आते हुए मिल जाएं तो देखना नहीं, भाग जाना।' शिष्य को यह आशा नहीं थी । वह डरा । क्या कह रहे हैं ? बोधिधर्म बोले- 'सुनो ! यह तो कुछ भी नहीं है । जब मेरी सत्संग होती है तब एक बार स्थिति इतनी विकट हो गई थी कि - तलवार लेकर गर्दन काट देनी पड़ी, तभी मैं अपने को पा सका । शिष्य अवाक् रह गया। उसे यह देखकर और भी आश्चर्य हुआ कि गुरु रोज बुद्ध-प्रतिमा की पूजा - करते हैं, नमस्कार करते हैं ।
शिष्य ने पूछा - 'फिर यह पूजा और नमस्कार क्यों करते हैं ? 'बोधिधर्म' ने कहा वे गुरु हैं । उन्होंने स्वयं ही मुझे यह समझाया था कि जब मुझे छोड़ दोगे तभी अपने को प्राप्त कर सकोगे । यह तो सिर्फ अनुग्रह है ।
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महावीर भी ठीक ऐसा ही गौतम से कह रहे हैं - वोच्छिहि सिणेहमप्पणी'मेरे साथ जो स्नेह है, उसे छोड़कर स्वयं में प्रतिष्ठित हो ।
महावीर ने कहा है- जो सम्यक्ज्ञान और सम्यग् आचरण - चरित्र सम्पन्न होते हैं, वे मुक्त होते हैं । बुद्ध ने शील, समाधि और प्रज्ञा का सूत्र दिया है । सम्यग् ज्ञान से स्वयं का बोध होता है, और चरित्र से स्वभाव में अवस्थित रहता है । जिसने स्वयं को जान लिया और स्वयं में अपनी प्रतिष्ठा बना ली, मुक्ति उससे कैसे दूर हो सकती है ? साध्य के लिए ज्ञान और आचरण अपेक्षित है ।
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