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________________ अध्याय १५ : ३४६ वह प्रत्येक गलत चरण को रोकने के लिए संकेत देती है। इसके ढंक जाने पर मनुष्य बाहर की दुनिया में चला जाता है। आत्मविद् वह है जो आत्म-जगत् के भानन्द का अनुभव करता है। श्रुतवन्तो भवन्त्येके, शीलवन्तोऽपरे जनाः। श्रुतशीलयुता एके, एके द्वाभ्यां विजिताः॥३५॥ ३५. पुरुष चार प्रकार के होते हैं : १. श्रुतवान् (ज्ञानवान्)। २. आचारवान् । ३. श्रुतवान् और आचारवान् । ४. न श्रुतवान् और न आचारवान् । श्रुतवान् मोक्षमार्गस्य, देशेन स्याद् विराधकः। शीलवान् मोक्षमार्गस्य, देशेनाराधको भवेत् ॥३६॥ ३६. जो पुरुष केवल श्रुतवान् होता है, वह मोक्ष-मार्ग का आंशिक रूप से विराधक होता है। जो पुरुष केवल आचारवान् होता है वह मोक्ष-मार्ग का आंशिक रूप से आराधक होता है। जैन दर्शन ज्ञान और क्रिया-दोनों से मोक्ष मानता है। जो एकान्त-वादी दर्शन हैं वे केवल ज्ञान या केवल क्रिया से मोक्ष मानते हैं। यह अयथार्थ है । जहां श्रुत और आचार का समन्वय है, वहीं लक्ष्य प्राप्ति होती है। केवल ज्ञान व्यक्ति को मूढ़ बनाता है और ज्ञानशून्य क्रिया निराधार होती है। इसलिए ज्ञान से समन्वित क्रिया और क्रिया से समन्वित ज्ञान ही लक्ष्य-साधक होता है। इदं दर्शनमापन्नो, मुच्यते नेति संगतम् । श्रुतशील-समापन्नो, मुच्यते नात्र संशयः ॥३७॥ ३७. कुछ लोगों का अभिमत है कि अमुक दर्शन को स्वीकार करने से व्यक्ति मुक्त हो जाता है किंतु यह संगत नहीं है। सचाई यह है कि जो श्रुत और शील से युक्त होता है वह निःसन्देह मुक्त हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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