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________________ अध्याय १५ : ३५१ वाचः कायस्य कौकुच्यं, कन्दर्प विकथां तथा। कृत्वा विस्मापयत्यन्यान्, कान्दो तस्य भावना ॥३॥ ३६. वाणी और शरीर को चपलता, काम-चेष्टा और विकथा के द्वारा जो दूसरों को विस्मित करता है, उस व्यक्ति की भावना "कान्दी' भावना कहलाती है। मन्त्रयोगं भूतिकर्म, प्रयुङ्क्ते सुखहेतवे। अभियोगी भवेत्तस्य, भावना विषयैषिणः॥४०॥ ४०. विषय की गवेषणा करने वाला जो व्यक्ति सुख की प्राप्ति के लिए मंत्र और जादू-टोने का प्रयोग करता है, उसकी भावना “अभियोगी' भावना कहलाती है। ज्ञानस्य ज्ञानिनो नित्यं, संघस्य धर्मसेविनाम् । वदन्नवर्णानाप्नोति, किल्विषीकीञ्चभावनाम् ॥४१॥ ४१. ज्ञान, ज्ञानवान्, संघ और धार्मिकों का जो अवर्णवाद (निन्दा)बोलता है उसकी भावना किल्विषिकी भावना कहलाती है। अव्यवच्छिन्नरोषस्य, क्षमणान्न प्रसीदतः। प्रमादे नानुतपतः, मांसुरी भावना भवेत् ॥४२॥ ४२. जिसके रोष निरन्तर बना रहता है,जो क्षमा-याचना करने पर भी प्रसन्न नहीं होता और जो अपनी भूल पर अनुताप नहीं करता, उसकी भावना आसुरी भावना कहलाती है। उन्मार्गदेशको मार्गनाशकश्चात्मघातकः। मोहयित्वात्मनात्मानं, संमोही भावनां व्रजेत् ॥४३॥ ४३. जो उन्मार्ग का उपदेश करता है, जो दूसरों को सन्मार्ग से 'भ्रष्ट करता है, जो आत्महत्या करता है, जो अपनी आत्मा को आत्मा से मोहित करता है, उसकी भावना 'संमोही' भावना कहलाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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