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३४४ : सम्बोधि
२४. आत्मा न नया है और न पुराना-यह द्रव्याथिकदृष्टि है । आत्मा नया भी है और पुराना भी—यह पर्यायाथिकदृष्टि
नवोपि च पुराणोऽपि, देहो भवति देहिनाम् ।
शैशवं यौवनं तत्र, वार्धक्यञ्चापि जायते ॥२५॥ २५. जीवों का शरीर नया भी होता है और पुराना भी। शरीर में शैशव, यौवन और वार्धक्य (बुढ़ापा) भी होता है।
आत्मा पहले भी थी, आज भी है और आगे भी रहेगी। नये और पुराने का व्यवहार आत्मा में इसलिए नहीं होता कि वह सर्वकालिक है। न उसका स्वरूप पुराना होना है न नया ।दोनों शब्द सापेक्ष हैं। एक रूप को छोड़कर दूसरे रूप में आना नया है और जिसे छोड़ा जाता है वह पुराना है । आत्मा में वैसा नहीं होता। द्रव्यार्थिकदृष्टि से वस्तु का स्वभाव-धर्म अपरिवर्तित होता है।
पर्यायाथिकदृष्टि भिन्न है। वह पदार्थों की अवस्थाओं को देखती है। अवस्थाएं बदलती हैं अतः नये और पुराने शब्दों का व्यवहार इसमें हो जाता है। आत्मा एक अवस्था का त्याग कर दूसरी अवस्था में आती है तब वह पहले की अपेक्षा नयी है और नये की अपेक्षा पुरानी।
शैशव, यौवन और बुढ़ापा एक ही शरीर की तीन अवस्थाओं से आत्मा में बालक, युवक और वृद्ध शब्दों का व्यवहार हो जाता है।
गीता कहती है—'इस शरीर में आत्मा बचपन, यौवन और वार्धक्य में से गुजरती है। यह शरीर की दशा है। आत्मा उसमें वही है। शरीर का अन्त हो जाता है तब आत्मा नये शरीर को बना लेती है। यह क्रम मुक्ति के अनन्तर रुक जाता है। प्राणों के वियोजन से धीर मनुष्य खिन्न नहीं होते। वे सत्य को जानते हैं।
देहस्योपाधिभेदेन, यो वात्मानं जुगुप्सते।
नात्मा तेनावबुद्धोऽस्ति, नात्मवादी स मन्यताम् ॥२६॥ २६. शरीर को भिन्नता होने के कारण जो दूसरी आत्मा से घृणा करता है, उसने आत्मा को नहीं जाना । उसे आत्मवादी नहीं मानना चाहिए।
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