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________________ अध्याय १५ : ३४५ शरीर की भिन्नता के पीछे आत्मा की भिन्नता नहीं है । आत्मा एक है, सदृश है । जिसे आत्मा ज्ञात है, दृष्ट है वह आकृति को महत्व नहीं देता और न शरीरभेद के आधार पर किसी का आदर और अनादर करता है । शरीर को महत्त्व -देने का अर्थ है - राग-द्वेष को महत्त्व देना । देहाश्रित सम्मान व अपमान दोनों ही उसके लिए बन्धन के कारण होते हैं । आत्मवादी बाह्य को प्राधान्य नहीं देता । वह जानता है, समझता है कि यह आकार-भेद है, चैतन्य-भेद नहीं । किन्तु अनात्मद्रष्टा की दृष्टि ऊपर की ओर नहीं उठती । वह इन्द्रियों के पार के जगत् को देखने में सक्षम नहीं होती। इसलिए वह बाहर ही उलझा रहता है । जनक की सभा में स्वयं को आत्मवादी मानने वाले अनेक विद्वज्जन सम्मिलित हुए । तर्क-वितर्क भी चल रहे थे । अष्टावक्र मुनि के पिता भी वहीं थे । वे पराजित हो रहे थे । अष्टावक्र को पता चला। वे जनक की सभा में आए । विद्वानों ने देखा अष्टावक्र को, जो आठ स्थानों से टेढ़े-मेढ़े थे। सभी विद्वान खिलखिलाकर हंसने लगे । अष्टावक्र ने राजा जनक से कहा- 'क्या यह चमारों की सभा है ? केवल मेरी चमड़ी को देखने वाले चमार ही हो सकते हैं ।' सभी सभासद् अवाक् रह गए। जनक को लगा यह बालक ज्ञानी है। उसने सिंहासन से नीचे उतर कर निवेदन किया- महलों में पधारें और मेरी जिज्ञासाओं का -समाधान करें । 'अष्टावक्र गीता' इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है । उम्मर खय्याम ने कहा है— जब मैं जवान था तो बहुत पंडितों के द्वार पर गया, वे बड़े ज्ञानी थे। मैंने उनकी चर्चा सुनी, पक्ष-विपक्ष में विवाद सुने । जिस दरवाजे से गया, उसी दरवाजे से वापस लौट आया । ये केचित् क्षुद्रका जीवा, ये च सन्ति महालयाः । तद्वधे सदृशो दोषोऽसदृशो वेति नो वदेत् ॥ २७॥ २७. कई जीवों का शरीर छोटा है और कईयों का बड़ा । उन्हें मारने में समान पाप होता है या असमान - इस प्रकार नहीं कहना चाहिए । यहां यह बताया गया है कि शरीर के छोटे-बड़े आकार पर हिंसा - जन्य पाप का माप नहीं हो सकता । जो व्यक्ति यह मानते हैं कि छोटे प्राणियों की हिंसा में कम पाप होता है और बड़े प्राणियों की हिंसा में अधिक पाप होता है, भगवान् महावीर की दृष्टि से यह मान्यता सम्यक् नहीं है । पाप का सम्बन्ध जीव-वध से नहीं किन्तु भावना से है। भावों की क्रूरता से जीव-हिंसा के बिना भी पापों का -बन्धन हो जाता है । मन, वाणी ओर शरीर की हिंसासक्त चेष्टा से छोटे जीव की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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