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अध्याय १५ : ३४३
सबसे पृथक् है । वह चिदानन्द स्वरूप है ।
असवर्णः सवर्णो वा, नासौ क्वचन विद्यते ।
अनन्तज्ञान-सम्पन्नः, संपर्येति शुभाशुभैः॥२२॥ २२. आत्मा न सवर्ण है और न असवर्ण । वह स्वरूप की दृष्टि से अनन्त ज्ञान से युक्त है । शुभ-अशुभ कर्मों के द्वारा बद्ध होने के कारण वह संसार में परिभ्रमण करता है।
वर्णसंकर, स्वणिक और स्पृश्य-अस्पृश्य की मान्यताएं तात्त्विक नहीं हैं। ये व्यवहार-भेद पर आश्रित हैं। आत्मा अनन्त ज्ञानमय है। वह एक स्पृश्य में है, वैसे ही अस्पृश्य में है। मनुष्येतर प्राणियों में भी आत्मा के मूलरूप में कोई अन्तर नहीं है। गीता कहती हैं-पंडित लोग सुशिक्षित और विनयशील ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते या चांडाल को समान दृष्टि से देखते हैं।
गेहाद गेहान्तरं यान्ति, मनुष्याः गेहवर्तिनः। देहाद देहान्तरं यान्ति, प्राणिनो देहवर्तिनः ॥२३॥
२३. घर में रहने वाले मनुष्य जैसे एक घर को छोड़कर दूसरे घर में जाते हैं उसी प्रकार शरीर में रहने वाले प्राणी एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाते हैं।
शुद्ध आत्मा का संसरण नहीं होता। शरीर धारी आत्मा संसरण करती है। एक शरीर को छोड़कर अन्य शरीर धारण करने से आत्मा का स्वभाव परिवर्तन नहीं होता। यदि शरीर के साथ आत्मा का विनाश माना जाये तो उसका चैतन्य स्वरूप नहीं रह सकता।
चैतन्य आत्मा का अनन्य सहचारी धर्म है । वह कभी पृथक् नहीं हो सकता। आत्मा अजर और अमर है। गीता से तुलना कीजिए–'वह कभी जन्म नहीं लेता और न कभी मरता ही है। उसका अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होता । वह अजन्मा, शाश्वत, नित्य और प्राचीन है। शरीर के मर जाने पर भी वह नहीं मरता।
नासौ नवो नवा जीर्णो, नवोपि च पुरातनः। आद्या द्रव्याथिको दृष्टिः, पर्यायार्थग तापरा ॥२४॥
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