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३२८ : सम्बोधि
लेता है या लुंचन करता है । वह साधु का वेश धारण कर ईर्यासमिति आदि साधुकर्मों का अनुपालन करता हुआ विचरण करता है। वह भिक्षा के लिए गृहस्थों के घरों में प्रवेश कर 'प्रतिमा सम्पन्न श्रमणोपासक को भिक्षा दो"-ऐसा कहता है । यदि कोई उससे पूछे कि "तुम कौन हो?" तो वह यह कहता है-"मैं प्रतिमा सम्पन्न श्रमणोपासक हूं।"
प्रायः वे लोग इनका स्वीकरण करते हैं :
१. जो अपने आपको श्रमण बनने के योग्य नहीं पाते किन्तु जीवन के अन्तिम काल में श्रमण-जैसा जीवन बिताने के इच्छुक होते हैं।
२. जो श्रमण जीवन बिताने का पूर्वाभ्यास करते हैं।
साधक गृहस्थ जैसे-जैसे अपने साधना-अभ्यास में सफल, प्रसन्न और आनन्दित हो जाता है वैसे-वैसे ममत्व, आसक्ति, और भ्रांति के क्षीण होने पर सत्य की दिशा में तीव्रगति से बढ़ने को आतुर हो जाता है। साध्य-धर्म के अतिरिक्त फिर उसका मन अन्यत्र रमण नहीं करता। वह चाहता है-मंजिल, लक्ष्य को प्राप्त करना । इस दृष्टि से जो कुछ बाह्य रूप में स्वीकृत किया था अब उसे प्रत्यक्ष अनुभूति के रूप में देखना चाहता है । अनुभूति समय-सापेक्ष है । प्रतिमाओं के अभ्यास-काल में बाह्य क्रियाओं से निवृत्त होकर वह सत्य की आराधना में जीवन समर्पित करता है और सारा समय साधना की प्रक्रियाओं में योजित करता है। सफलता समय, श्रद्धा, धैर्य और निरन्तरता पर आधारित है।
आनन्द श्रावक भगवान् का प्रमुख उपासक था। उसने चौदह वर्षों तक बारहवती का जीवन बिताया। पन्द्रहवें वर्ष के अन्तराल में एक दिन उसके मन में धर्म-चिंता उत्पन्न हुई और वह आत्मा या सत्य की खोज तथा उसके लिए समर्पित जीवन बिताने के लिए कृतसंकल्प हुआ। दूसरे दिन अपने ज्येष्ठपुत्र को घर का भार सौंपकर भगवान् महावीर के पास उपासक की ग्यारह प्रतिमाएं स्वीकार कर लीं। इनके प्रतिपूर्ण पालन में साढ़े पांच वर्ष लगे । तत्पश्चात् उसने अपश्चिममरणांतिक-संलेखना की और अन्त में एक मास का अनशन किया। ___ उपासक आनन्द के इस वर्णन से यही फलित होता है कि उपासक की ग्यारह प्रतिमाओं का स्वीकरण जीवन के अन्तिम भाग में किया जाता था। उसकी पूर्वभूमिका के रूप में वर्षों तक बारह व्रतों का पालन करना होता था। और ये प्रतिमाएं भावी अनशन के लिए भी पृष्ठभूमि बनाती थीं।
असंयम परित्यज्य, संयमस्तेन सेव्यताम् । असंयमो महद् दुःखं, संयमः सुखमुत्तमम् ॥४३॥
४३. इसलिए असंयम को छोड़कर संयम का सेवन करना
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