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________________ अध्याय १४ : ३२६ चाहिए । असंयम महान् दुःख है । संयम उत्तम सुख है । असंयम बहिर्मुखता है और संयम स्व-मुखता (अन्तर्मुखता) है। स्वभाव संयम है और विभाव असंयम । आत्म-विस्मृति असंयम है और आत्मस्मृति संयम । दुःख विस्मृति है और सुख स्व-स्मृति। जिसे सुख प्रिय है उसे संयम प्रिय होना चाहिए। संयम का फल सुख है और असंयम का दुःख । संयम के सिवाय सुख की आकांक्षा करना मृग-मरीचिका में पानी की तलाश करना है। बाहर से सुख नहीं मिला, कितु सुखाभास अवश्य मिला है। मनुष्य उसी सुखाभास में मुग्ध होकर पुनः पुनः दु:ख, अशान्ति और कष्टों का अनुभव करता चला आ रहा है। इसीलिए महावीर कहते हैं-अपने अन्तश्चक्षुओं को उद्घाटित कर देखो, यहां क्या मिला है ? यदि दुःख के सिवा कुछ नहीं मिला तो अब उसे छोड़कर सत्य के पथ का अनुसरण करो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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