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सोपवासा
विधीयते ।
सावद्ययोग-विरतिः, द्रव्यक्षेत्रादि-भेदेन, पौषधं तद् भवेद् व्रतम् ॥३६॥
३६. उपवासपूर्वक —
अध्याय १४ : ३२३
१. द्रव्य - वस्तुओं की मर्यादा करना ।
२. क्षेत्र - क्षेत्र - संबंधी मर्यादा करना । ३. काल -- अहोरात्र |
४. भाव - राग-द्वेष-रहित ।
— इन चार प्रकार से सावद्ययोग (असत् प्रवृत्ति) की विरति करना पौषध व्रत कहलाता है ।
इस साधना में पूर्ण उपवास व्रत से युक्त होकर व्यक्ति एक दिन के लिए साधु-चर्या में आ जाता है । उसकी गति, अगति आदि शारीरिक क्रियाएं प्रमादरहित होती हैं । समभाव की साधना को पुष्ट करने के लिए ऐसे लम्बे समय की अपेक्षा रहती है, वह इसमें पूर्ण हो जाती है । यह साधु जीवन का पूर्वाभ्यास है ।
प्रासुकं दोषमुक्तञ्च, भक्तपानं प्रदीयते । मुनये आत्मसंकोचं, संविभागोऽतिथेर्व्रतम् ॥ ३७॥
३७. अपना संकोच कर ( स्वयं कुछ कम खाकर ) साधु को प्रासुक (अचित्त) और दोष रहित जो भोजन-पानी दिया जाता है उसे 'अतिथि- संविभाग' व्रत कहा जाता है ।
दान के विशुद्ध अधिकारी साधु ही हैं, जो केवल अहिंसा, आत्मसाधना और अध्यात्म जागरण के लिए जीते हैं । वे केवल लेना ही नहीं जानते, दान का प्रतिदान भी करते हैं । किन्तु उनका प्रतिदान भौतिक नहीं, आध्यात्मिक है । वे मनुष्यों की अन्तश्चेतना को जागृत करते हैं, उन्हें नैतिक और धर्मनिष्ठ बनाते हैं ।
साधुओं का भोजन विशुद्ध होता है । विशुद्ध का अभिप्राय है - जो भोजन मुनि के लिए निर्मित न हो, सचित्त --- सजीव न हो, सचित्त वस्तुओं से स्पृष्ट न हो और जो मुनि के योग्य हो ।
गृहस्थ श्रावक का यह धर्म है कि वह स्वनिर्मित भोजन में से मुनि को आहार दे । दान धर्म है । दान की विशुद्ध भावना से कर्म - निर्जरा होती है और उत्कट
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