________________
३२२ : सम्बोधि
अभ्यास होता है, समभाव का विकास होता है, वह 'सामायिक' व्रत कहलाता है ।
धर्म समतामय है । राग-द्वेष विषमता है । समता का अर्थ है राग-द्वेष का अभाव । विषमता है राग-द्वेष का भाव । समभाव की आराधना के लिए सामायिक व्रत है। एक मुहूर्त्त तक सावद्य प्रवृत्ति का त्याग करना सामायिक व्रत है ।
यह आत्मविकास की सुन्दर प्रक्रिया है । पूर्वोक्त व्रतों की अपेक्षा इसमें आत्मा का सान्निध्य अधिक साधा जाता है। इसका काल-मान ४८ मिनट का है । इसमें मानसिक, वाचिक और कायिक समस्त असत् प्रवृत्तियों का परित्याग किया जाता है । सर्वारम्भ-परित्यागी शब्द से सामायिक की तुलना की जा सकती है। यह स्थूल रूप से मुनि जीवन की-सी साधना है। साधक यहां आकर समता में लीन हो जाता है । उसका मन लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दाप्रशंसा और मान-अपमान आदि द्वन्द्वों में सम बन जाता है । 'समलोष्टकांचन:'उसके लिए पत्थर और सोना एक समान है। गीता में जो भक्त के लक्षण हैं वे समभावी व्यक्ति के जीवन में अक्षरशः चरितार्थ होते हैं ।
जो प्रसन्न होता है, न द्वेष करता है, न दुःख मानता है, न इच्छा करता है और जिसने भले और बुरे दोनों का परित्याग कर दिया है इस प्रकार जो मेरी भक्ति करता है, वह मुझे प्रिय है । जो शत्रु और मित्र दोनों के साथ एक-सा बर्ताव करता है, जो सर्दी-गर्मी और दुःख-सुख में एक जैसा रहता है और जो आसक्ति से रहित है, वह मुझे प्रिय है ।'
ईसा के शब्दों में- 'वह अपने सूर्य को बुरे और भले दोनों पर उदित करता है और जो वर्षा को न्यायी और अन्यायी दोनों पर बरसाता है ।'
सावधिकञ्च हिंसादेः, परित्यागो यथाविधि । क्रियते व्रतमेतत्तु देशावकाशिकं भवेत् ॥ ३५॥
३५. एक निश्चित अवधि के लिए विधिपूर्वक जो हिंसा का परित्याग किया जाता है वह 'देशावकाशी' व्रत कहलाता है ।
समभाव की प्राप्ति का साधन जागरूकता है । जो व्यक्ति पल-पल जागरूक रहता है, वही समभाव की ओर बढ़ सकता है । पहले आठ व्रतों की सामान्य मर्यादा के अतिरिक्त थोड़े समय के लिए विशेष मर्यादा करना, अहिंसा आदि की विशेष साधना करना देशावकाशिक व्रत है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org