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________________ ३२४ : सम्बोधि भाव-विशुद्धि से व्यक्ति संसार का अन्त कर देता है। इस दान में कोई स्वार्थ नहीं रहता। यह आत्मशुद्धि मूलक होने से मोक्ष का एक अंग है। इसी को अतिथिसंविभाग ब्रत कहा है। श्रावकों के व्रतों के साथ इसका अभिन्न सम्बन्ध है। पांच अणुव्रतों की पुष्टि के लिए और आत्म-पवित्रता के लिए इन अन्य व्रतों की रचना की गई है । (देखो-६-६ की व्याख्या) संलेखनां प्रकुर्वीत, श्रावको मारणान्तिकीम् । मृत्यु सन्निहितं ज्ञात्वा, मृत्योरविचलाशयः॥३॥ ३८. मृत्यु से न डरने वाला श्रावक मृत्यु को सन्निहित (पास में) जानकर मारणान्तिक संलेखना-अनशन के पूर्व शरीर को कृश. करने के लिए क्रमशः दिगय आदि का परित्याग करे । जीना जैसे एक कला है वैसे मरना भी। सहस्त्रों व्यक्तियों में से कोई एक व्यक्ति जीने की कला में अभिज्ञ होता है। मरने की कला जीने की कला से कोई कम नहीं है। जिसे जीने की कला आती है उसे मरने की कला भी सीखनी चाहिए। जैन दर्शन जीने और मरने दोनों की कलाएं सिखाता है। जीवन उसके लिए हर्ष नहीं है और मृत्यु विषाद नहीं है। जैन दर्शन साधक को यह संदेश देता है कि देह का भेद करो, मृत्यु से डरो मत लेकिन मौत को डरा दो । साधकों ने मृत्यु को महोत्सव माना है। व्रतों की साधना में संलग्न श्रावक भी मत्यु से डरे नहीं। वह जब देख ले कि देह जीर्ण हो रहा है, तब मृत्यु से पहले ही मौत की तैयारी कर ले। इस तैयारी का नाम संलेखना है। इसम वह भोग्य पदार्थों से अपने मन को हटाता है। उसका चिन्तन होता है—'मैंने संसार के समस्त पदार्थों का अनन्त कालचक्र में उपभोग किया है। यह सब उच्छिष्ट है। इन उच्छिष्ट पदार्थों में मेरा क्या आकर्षण? विज्ञ पुरुषों के लिए वान्त भोजन स्वीकार्य नहीं होता। वह यों सोच सारहीन पदार्थों से जीवन-निर्वाह करने लगता है। इसके बीच कभी एक दिन का उपवास, कभी दो दिन का उपवास, कभी एक बार भोजन, कभी केवल रोटी खाकर पानी पीकर रह जाना आदि क्रियाओं के द्वारा शरीर को आमरण-अनशन के लिए प्रस्तुत कर लेता है। ___ अनशन आत्महत्या नहीं, किन्तु स्वेच्छापूर्वक देह का त्याग है, देह के ममत्त्व का विसर्जन है। देह के प्रति आकर्षण बढ़ता है तब तक व्यक्ति मौत से कतराता रहता है। वह डाक्टर और दवाइयों के आश्रित पलता है किंतु जब मोह विलीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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