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________________ अध्याय १२ : २७७ भगवान् प्राह आवृतं जायते चित्तं, ज्ञानावरणयोगतः । हतं स्यादन्तरायण, मूढं मोहेन जायते ॥६॥ ६५. भगवान् ने कहा-चित्त ज्ञानावरणीय कर्म से आवृत होता है, अन्तराय कर्म से प्रतिहत होता है और मोह से मूढ़ बनता है। भगवान् महावीर की दृष्टि में ज्ञानावरणीय, अन्तराय और मोहनीय-ये तीन कर्म बाधक हैं। ज्ञान पर जो आवरण है वह ज्ञानावरणीय है, आत्मा को जानने में यह बाधा डालता है । जब यह हट जाता है तब ज्ञान का क्षेत्र व्यापक बन जाता है। आत्म-विकास में विध्न डालने वाला कर्म अन्तराय है। वह आत्म-शक्ति के स्फोट को रोकता है। मनुष्य यथार्थ को जानता हुआ भी उसमें उद्योग नहीं करता। यथार्थ के प्रति श्रद्धाशील न होना और न उसको स्वीकार करना-यह मोहनीय कर्म की देन है । मोहोदय से मनुष्य भौतिक आकर्षणों में फंसा रहता है । सत्य के प्रति न उसकी अभिरुचि होती है, न वह सत्य का आचरण ही करता है। किन्तु उल्टा इसे अपनी शांति में बाधक मानता है। यह मूढ़ता मोहजन्य है। स्व-सन्मत्याऽपि विज्ञाय, धर्मसारं निशम्य वा। मतिमान् मानवो नूनं, प्रत्याचक्षीत पापकम् ॥६६॥ ६६. बुद्धिमान् मनुष्य धर्म के सार को अपनी सद्बुद्धि से जानकर या सुनकर पाप का प्रत्याख्यान करे । बुद्ध ने कहा- भिक्षुओ! मैं आदरणीय, श्रद्धेय और सम्माननीय हूं, इस लिए मेरी वाणी को स्वीकार मत करो, किन्तु अपनी मेधा-बुद्धि से परीक्षण करके स्वीकार करो-“परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्य, मद्वचो न तु गौरवात् ।” महावीर भी यही कहते हैं अपनी बुद्धि से परखो-'मइमं पास।' और भी आत्मद्रष्टा ऋषियों का यही स्वर है। मुहम्मद ने कहा है- 'सब जगह मुझे ही प्रमाण मत मानो।' किन्तु व्यवहार में यह कम ही होता है। मनुष्य की बुद्धि कुछ परिपक्व होती है उससे पूर्व ही वह धर्म को पकड़ लेता है। जन्म के साथ धर्म का जन्म होना देखा जाता है। कहते हैं दुनियां में हजारों मत-मतान्तर हैं । प्रायः व्यक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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