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२७६ : सम्बोधि
सबको ऐसे अवसर सुलभ नहीं होत ।”
मेघः प्राह
कथं चित्तं न जानाति, कथं जानन न चेष्टते।
चेष्टमानं कथं नैति, श्रद्धानं चरणं विभो ! ॥६२॥ ६२. मेघ बोला-विभो! चित्त क्यों नहीं जानता ? जानता हुआ उद्योग क्यों नहीं करता ? उद्योग करता हुआ भी वह श्रद्धा और चारित्र को क्यों नहीं प्राप्त होता ?
आत्मा ज्ञानमय है। मन को सब कुछ बोध होना चाहिए। उसके लिए यह अज्ञेय क्यों है कि वह कहां से आया है ? कहां जायेगा? भविष्य की घटनाएं क्यों अज्ञात रहती हैं ? मेघ के मन में ये ही कुछ आशंकाएं हैं। ज्ञान की पूर्णता, श्रद्धा और आचरण के विकास में कौन बाधक है ?
भगवान् प्राह
आवृतं न हि जानाति, प्रतिहतं न चेष्टते । मूढं विकारमाप्नोति, श्रद्धायां चरणेऽपि च ॥६३॥
६३. भगवान् ने कहा-जो चित्त आवृत होता है वह नहीं जानता, जो चित प्रतिहत है वह उद्योग नहीं करता और जो चित्त मूढ़ होता है वह श्रद्धा और चारित्र में विकार को प्राप्त होता है ।
मेघः प्राह
__ केन स्यादवृतं चित्तं, केन प्रतिहतं भवेत् । - मूढञ्च जायते केन, ज्ञातुमिच्छामि सर्ववित् ॥६४॥
६४. मेघ बोला-है सर्वज्ञ ! चित्त किससे आवृत होता है ? किससे प्रतिहत होता है ? और किससे मूढ़ बनता है ? मैं जानना चाहता हूं।
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