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अध्याय १२ : २५५
३७. लोक की आकृति, उसमें होने वाले पदार्थ और प्रकृति का जो चिन्तन किया जाता है, वह 'संस्थान-विचय' कहलाता है । (यह चौथा प्रकार है)।
ध्यान का अर्थ है-चिन्तनीय विषय में मन को एकाग्र करना, एक विषय पर मन को स्थिर करना, अथवा मन, वचन और काया की प्रवृत्तियों का निरोध करन (देखें-आठवें श्लोक की व्याख्या)। ध्याता ध्यान के द्वारा अपने ध्येय को प्राप्त करने का प्रयास करता है और उसमें सफल भी होता है। ध्येय की इष्टता व अनिष्टता के आधार पर ध्यान भी इष्ट व अनिष्ट बन जाता है। सामान्यतः ध्येय अपरिमित है। जितने मनुष्य हैं, उन सबकी एकाग्रता भिन्न-भिन्न होती है। उनका प्रतिपादन करना असम्भव है। संक्षेप में उसके चार प्रकार किये गये हैं। अनात्माभिमुखी जितनी एकाग्रता है वह सब आर्त व रौद्र ध्यान है। आत्माभिमुखी जितनी एकाग्रता है, वह सब धर्म व शुक्ल ध्यान है।
आर्त और रौद्र संसार के कारण हैं, अतः हेय हैं। धर्म और शुक्ल मोक्ष के कारण हैं, अतः उपादेय हैं।
उन्मादो न भवेद् बुद्ध-रहद्वचनचिन्तनात् । अपायचिन्तनं कृत्वा, जनो दोषाद् विमुच्यते ॥३८॥
३८. अर्हत् की वाणी के चिन्तन से बुद्धि का उन्माद नहीं होता-यह 'आज्ञा-विचय' का फल है । राग और द्वेष के परिणामचिन्तन से मनुष्य दोष से मुक्त बनता है-यह 'अपाय-विचय' का फल है।
अयथार्थता में दोषों का परिपालन और उद्भव होता है। जब मनुष्य सत्य को निकट से देख लेता है तब सहसा असत्य के पैर लड़खड़ा जाते हैं। आत्महितैषी व्यक्ति फिर अहित का अनुसरण नहीं करता। आज्ञा-विचय आदि ध्यानों में रमण करने वाला यथार्थ का स्पर्श कर लेता है। उसकी मति-मूढ़ता सहज ही नष्ट हो जाती है । वह क्रमशः मुक्ति की ओर अग्रसर होता रहता है।
अशुभे न रति याति, विपाकं परिचिन्तयन् । वैविध्यं जगतो दृष्ट्वा , नासक्ति भजते पुमान् ॥३६॥
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