________________
२५४ : सम्बोधि
एकाग्रचिन्तनं योग-निरोधो ध्यानमुच्यते। धर्म्य चतुर्विधं तत्र, शुक्लं चापि चतुर्विधम् ॥३३॥
३३. एकाग्र-चिन्तन एवं मन, वचन और काया के निरोध को 'ध्यान' कहते हैं। धर्मध्यान के चार प्रकार हैं और शुक्ल-ध्यान के भी चार प्रकार हैं।
अर्हता देशितां दृष्टि-मालम्ब्य क्रियते यदा। पदार्थचिन्तनं यत्तत्, आज्ञाविचय उच्यते ॥३४॥
३४. अर्हत् के द्वारा उपदिष्ट दृष्टि को आलम्बन बनाकर जो पदार्थ का चिन्तन किया जाता है, वह 'आज्ञा-विचय' कहलाता है । (धर्मध्यान का यह पहला प्रकार है)।
सर्वेषामपि दुःखानां, रागद्वेषौ निबन्धनम् । ईदृशं चिन्तनं यत्तत्, अपायविचयो भवेत् ॥३५॥ ३५. राग और द्वष सब दुःखों के कारण हैं-इस प्रकार का जो चिन्तन किया जाता है, वह 'अपाय-विचय' कहलाता है । (यह दूसरा प्रकार है)।
सुखान्यपि च दुःखानि, विपाकः कृतकर्मणाम् । किं फलं कस्य चिन्तेति, विपाकविचयो भवेत् ॥३६॥
३६. सुख और दु:ख कर्मों के विपाक (फल) हैं, किस कर्म का क्या फल है, इस प्रकार का जो चिन्तन किया जाता है, वह 'विपाक विचय' कहलाता है । (यह तीसरा प्रकार है)।
लोकाकृतेश्च तद्वतिभावानां प्रकृतेस्तथा।
चिन्तनं क्रियते यत्तत्, संस्थानविचयो भवेत् ॥३७॥ १. ध्यान की विस्तृत जानकारी के लिए देखें-परिशिष्ट १ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org