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________________ अध्याय १२ : २५३ आमूल-मूल बदलने में सक्षम है। वही यथार्थ तप है। स्वाध्याय का अर्थ है-स्वआत्मा का अध्ययन करना, आत्मा को पढ़ना । दूसरों को पढ़ना सरल है, स्वयं को पढ़ना नहीं। इसलिए इसे तप कहा है। दूसरे के अध्ययन में व्यक्ति जितना व्यग्र है उतना स्वयं के अध्ययन में उत्सुक नहीं है। दृष्टि का दूसरों पर अवलम्बित होना धर्म नहीं, धर्म है स्वयं को देखना। स्वदर्शन जो सहज है वह आज के मानव के लिए असहज हो गया। इसलिए आज स्वाध्याय तप की जितनी उपेक्षा है, पहले उतनी नहीं रही। बड़े-बड़े तपस्वियों के लिए यह तप दुर्धर्ष है। धर्म का जीवन्त-रूप इसके बिना संभव नहीं है। सही स्वाध्याय स्वाध्याय का पहला चरण होगा कि हम अपने आमने-सामने खड़े होकर अपने को पढ़ें। दूसरों की धारणाओं को हटा दें। दूसरे लोग आपके सम्बन्ध में क्या कहते हैं-इस ओर पीठ कर दें। लोगों की अपनी-अपनी दृष्टि होती है, और अपने-अपने बटखरे होते हैं, और अपने-अपने माप होते हैं। आप उनकी चिंता करेंगे तो अपने असली चेहरे को कभी प्रगट नहीं कर सकेंगे। आपको अपना चेहरा उनके सांचे में ढालना होगा। इससे आपकी आत्मा मर जाएगी और आप संभव-- तया सर्वत्र सफल भी नहीं हो सकेंगे। इसलिए आप दूसरों से हटकर अपने में आएं और देखें-बड़ी ईमानदारी से कि आप कैसे हैं ? आपके भीतर क्या है ? जो है-उससे डरें नहीं, देखते जाएं। दूसरे चरण में-आप बैठे अकेले और सहजतापूर्वक अपनी वृत्तियों का दर्शन करते जाएं। एक-एक को प्रकट होने दें। जो हैं उन्हें अस्वीकार कैसे करेंगे? कैसे उनसे अपरिचित रहेंगे? यहां बहुत सावधानता, निर्भयता और धैर्य की अपेक्षा होगी। काम, क्रोध, घृणा, ईर्ष्या, वासना आदि प्रवृत्तियां आप में पहले भी विद्यमान थीं, किंतु उनका दर्शन नहीं था, अब आप उनको देख रहे हैं और उनको प्रकाश में ला रहे हैं। इसके साथ-साथ आज तक का जो आपका विकृत रूप था उसे आप स्वीकार भी करते जाइए, लेकिन एक बात का और ध्यान रखें कि आप ऐसे नहीं हैं। आपके भीतर एक विराट् शुद्धरूप और छिपा है। ये सब आपकी प्रमत्तता के कारण प्रविष्ट हो गए थे। आप ये नहीं हैं। जैसे-जैसे आप अपने को जानने लगेंगे कि आपमें बदलाहट होनी शुरू हो जाएगी। अपने को जानना और स्वीकार करना इस वृत्ति से छूटने का अमोघ उपाय है। महावीर की भाषा में यह सम्यग्ज्ञान है। सम्यग्ज्ञान की स्थिति में अन्यथा होना अशक्य है। 'Knowledgeis. Power' ज्ञान शक्ति है। स्वाध्याय की साधना का यही मुख्य लक्ष्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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