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२५६ : सम्बोधि
३६. कर्म-विपाक का चिन्तन करने वाला मनुष्य अशुभ कार्य में रति (आनन्द) का अनुभव नहीं करता—यह 'विपाक-विच य' का फल है । जगत् की विचित्रता को देखकर मनुष्य संसार में आसक्त नहीं बनता-यह संस्थान-विचय' का फल है।
विशुद्धं जायते चित्तं, लेश्ययापि विशुद्धयते । अतीन्द्रियं भवेत्सौख्यं, धर्म्यध्यानेन देहिनाम् ॥४०॥
४०. धर्म्यध्यान के द्वारा प्राणियों का चित्त शुद्ध होता है, लेश्या शुद्ध होती है और अतीन्द्रिय (आत्मिक) सुख की उपलब्धि होती
विजहाति शरीरं यो, धर्म्य चिन्तनपूर्वकम् । अनासक्तः स प्राप्नोति, स्वर्गगतिमनुत्तराम् ॥४१॥
४१. जो धर्म्य-चिन्तनपूर्वक शरीर को छोड़ता है वह अनासक्त व्यक्ति स्वर्ग और क्रमश: अनुत्तर गति (मोक्ष) को प्राप्त होता है।
ध्याता के लिए प्रारम्भिक अवस्था में धर्म-ध्यान ही उपयुक्त है। धर्म चित्तशुद्धि का केन्द्र है। राग-द्वेष व मोह आदि चित्त-अशुद्धि के मूल हैं। इनसे आत्मा बंधती है। मुक्ति के लिए वीतरागता अपेक्षित है। वीतराग व्यक्ति इन्द्रिय-सुखों में आसक्त नहीं होता। उसके सामने आत्म-सुख है, वह इन्द्रियों से गाह्य नहीं होता। वीतरागता आत्म-धर्म है। अतः उससे होने वाला सुख भी आत्म-सुख या अतीन्द्रिय आनन्द है। धर्म-ध्यान से केवल चेतन मन का ही शोधन नहीं होता, अवचेतन मन के संस्कार भी मिटाये जाते हैं। अवचेतत मन की शुद्धि ही वास्तविक शुद्धि है। चेतन मन की अशुद्धि का मूल यह अवचेतन मन ही है। ध्यान हमारे मन की गहरी तहों में घुसकर समस्त मलों का प्रक्षालन कर देता है। समता-स्रोत सबके प्रति समान प्रवाहित हो जाता है। संसार में न कोई शत्रु रहता है और न कोई मित्र । अहिंसा का द्वार हमेशा के लिए खुल जाता है। इस दशा में शरीर छोड़ने वाले साधक के लिए स्वर्ग और अपवर्ग के सिवाय कोई मार्ग नहीं होता।
१. आज्ञा-विचय--आगम के अनुसार सूक्ष्म पदार्थों का चिन्तन करना ।
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