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२४२ : सम्बोधि
आस्रव-कर्म-ग्रहण करने वाले आत्म-परिणाम । संवर-कर्म-निरोध करने वाले आत्म-परिणाम । निर्जरा-कर्म-निर्जरण से होने वाली आत्मा की आंशिक उज्ज्वलता। बन्ध—आत्मा के साथ शुभ-अशुभ कर्म का बन्ध । मोक्ष-कर्म विमुक्त-अवस्था ।
अस्त्यात्मा शाश्वतो बन्धस्तदुपायश्च विद्यते । अस्ति मोक्षस्तदुपायो, ज्ञेयदृष्टिरसौ भवेत् ॥४॥
४. आत्मा है वह शाश्वत है, पुनर्भवी है, बन्ध है और वन्ध का कारण है, मोक्ष है और मोक्ष का कारण है-यह ज्ञेय-दृष्टि है ।
बन्धः पुण्यं तथा पापमास्रवः कर्मकारणम् । भवबीजमिदं सर्व, हेयदृष्टिरसौ भवेत् ॥५॥
५. बन्ध, पुण्य, पाप और कर्माग मन का हेतुभूत आस्रव है। ये सब संसार के बीज हैं—यह हेयदृष्टि है।
निरोधः कर्मणामस्ति, संवरो निर्जरा तथा । कर्मणां प्रक्षयश्चषोपादेयदृष्टिरिष्यते ॥६॥
६. कर्मों का निरोध करना संवर कहलाता है और कर्मों के क्षय से होने वाली आत्मशुद्धि निर्जरा कहलाती है- यह उपादेय दृष्टि है।
साधना-पथ पर अग्रसर होने से पूर्व साधक के लिए यह जानना जरूरी है कि वह क्यों इस मार्ग का चुनाव कर रहा है ? पहले या पीछे यह विवेक किए बिना साधना का शुभारम्भ फलदायी नहीं होता। सामान्य जन भी बिना किसी उद्देश्य के प्रवृत्त नहीं होते । दिशाहीन गति का कोई अर्थ नहीं रहता। हेय, ज्ञेय और उपादेय-इस तत्त्वत्रयी का बोध साधक को भटकने नहीं देता। वह सतत ध्येय की दिशा में बढ़ता रहता है।
जो जानने का है उसे जाने, छोड़ने का है उसे छोड़े और जो उपादेय है उसके
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