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________________ अध्याय १२ : २४३ ग्रहण में संलग्न रहे । अकुशल प्रवृत्तियों से बचना, जो हैं उन्हें हटाना और कुशल प्रवृत्ति की संरक्षा करना, तथा जो नहीं है वह कैसे संप्राप्त हो इसमें सचेष्ट रहना । साधना का यह प्रथम चरण है । इसलिए जितने भी साधक हुए हैं उन्होंने अशुभ से बचने का प्रथम सूत्र दिया है। महावीर ने कहा है - 'सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णा फला, दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णा फला, — अच्छे कर्मों का अच्छा फल और बुरे कर्मों का बुरा फल है । अंगुत्तर निकाय में बुद्ध ने कहा है- भिक्षुओ ! जैसा बीज बोता है वैसा ही फल पाता है । अच्छा कर्म करने वाला अच्छा फल पाता है और बुरा कर्म करने वाला बुरा । भिक्षुओ ! जिसकी दृष्टि मिथ्या होती है, संकल्प मिथ्या होते हैं, वाणी, कर्मान्त, आजीविका, व्यायाम, स्मृति, समाधि, ज्ञान, तथा विमुक्ति मिथ्या होती है, उसके कारण उसका शारीरिक, वाचिक तथा मानसिक सभी कर्म अनिष्ट दुःख के लिए होते हैं, क्योंकि उसकी दृष्टि ही बुरी होती है । पुण्य, पाप, आश्रव, बन्ध हेय हैं क्योंकि इनका कार्य संसार है । पुण्य का फल अच्छा है, किन्तु अच्छा होने से संसार- विच्छेद नहीं होता । निर्वाण की अपेक्षा वह हेय है । पुण्य और पाप दोनों से मुक्त होना है। सुख-वेदन या दुःख-वेदन दोनों का क्षय करना है । संवर, निर्जरा और मोक्ष उपादेय हैं । मोक्ष की उपादेयता निर्वाध है। क्योंकि वहां पुण्य-पाप दोनों ही नहीं हैं । वह भव का अन्त है । संवर और निर्जरा मोक्ष की पृष्ठभूमि का काम करते हैं । साधक एक साथ निर्वाण को उप-लब्ध नहीं कर सकता । संवर- निर्जरा की क्रमिक साधना निर्वाण को निकट करती है । उपयोगिता की दृष्टि से इनका विवेक कर योग-मार्ग में आरूढ़ होना चाहिए । आत्मलीनं मनोमुढं, योगो योगिभिरिष्यते । मनोगुप्तिः समाधिश्च साम्यं सामायिकं तथा ॥७॥ " ७. जो मन आत्मा में लीन एवं अमूढ़ है उसे योगी लोग योग कहते हैं | मनोगुप्ति, समाधि, साम्य और सामायिक – ये सब योग के ही विविध रूप हैं ।" ऐकाग्य' मनसश्चाद्ये, भवेच्चान्ते निरोधनम् । मनः समितिगुप्त्योश्च सर्वो योगो विलीयते ॥ ८ ॥ ८. ध्यान की दो अवस्थाएं होती हैं- एकाग्रता और निरोध । १. योग विषयक विस्तृत जानकारी के लिए देखें - परिशिष्ट १ Jain Education International 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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