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अध्याय १२ : २४१
संसार की उत्पत्ति के विषय में दार्शनिकों की भिन्न-भिन्न मान्यताएं हैं। कुछ जड़ से चेतन की उत्पत्ति मानते हैं, कुछ प्रलय के बाद जो नया सर्जन होता है उसे संसार कहते हैं, कुछ कहते हैं वह सृष्टि ईश्वरकृत है। जैन दर्शन की समन्वयात्मक दृष्टि ने इसे यों देखा है कि संसार न ईश्वरकृत है, न जड़ से उत्पन्न होता है और न प्रलय के बाद नया सर्जन ही होता है । वह पहले भी था, है और रहेगा । जड़ और चेतन का सनातन विरोध है । जड़ से चेतन पैदा नहीं हो सकता । गीता में कहा हैः असत् की उत्पत्ति नहीं होती और सत् का विनाश नहीं होता।' केवल वस्तुओं का रूपांतरण होता है। जड़ और चेतन दोनों को पर्याएं-अवस्थाएं बदलती रहती हैं। एक जगह का विनाश दूसरी जगह को आबाद करता है। एक व्यक्ति एक अवस्था को छोड़कर दूसरी अवस्था में चला जाता है। प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप से शाश्वत है और पर्याय की दृष्टि से अशाश्वत । संसार षड्द्रव्यात्मक है। उनका स्वरूप इस प्रकार है :
धर्मास्तिकाय-गति का माध्यम तत्त्व । अधर्मास्तिकाय-स्थिति का माध्यम तत्त्व। आकाशास्तिकाय—अवगाह देने वाला तत्त्व । काल-परिवर्तन का हेतुभूत तत्त्व। पुद्गलास्तिकाय-वर्ण, गध, रस, स्पर्शयुक्त द्रव्य । जीवास्तिकाय-चेतन द्रव्य ।
जीवाजीवौ पुण्यपापे, तथास्रवश्च संवरः। निर्जरा बन्धमोक्षौ च, ज्ञेयदृष्टिरसौ भवेत् ॥३॥
३. जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष-ये नौ तत्व है, यह ज्ञेयदृष्टि है ।
मुख्यतया तत्त्व दो हैं--जीव और अजीव। किन्तु मोक्ष के साधन के रहस्य को बतलाने के लिए इनके नौ भेद किये गये हैं। इन नौ भेदों में प्रथम भेद जीव का है, अंतिम भेद मोक्ष का है और बीच के भेदों में मोक्ष के साधक और बाधक साधनों का वर्णन है।
जीव---चैतन्य का अजस्र प्रवाह । अजीव-चैतन्य का प्रतिपक्षी-जड़। पुण्य --शुभ कर्म-पुद्गल। पाप-अशुभ कर्म-पुद्गल ।
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