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________________ हेय-उपादेय-बोध मेघः प्राह कि ज्ञेयं किञ्च हेयं स्यादुपादेयञ्च किं विभो !। शाश्वते नाम लोकेऽस्मिन्, किमनित्यञ्च विद्यते ॥१॥ १. मेघ बोला-विभो ! हेय और उपादेय क्या है ? इस शाश्वत जगत् में अशाश्वत क्या है ? जिज्ञासा ज्ञान-प्राप्ति की सच्ची भूख है । भूखा व्यक्ति जिस प्रकार भोजन के लिए व्याकुल होता है, जिज्ञासु व्यक्ति भी उसी प्रकार संदेहशमन के लिए आतुर रहता है । मेघ का मन यह जानना चाहता है कि संसार में जानने, छोड़ने और आचरण करने की क्या चीजें हैं, जिससे मैं स्वात्महित को साध सकू। भगवान् प्राह धर्मोऽधर्मस्तथाकाशं, कालश्च पुद्गलस्तथा। जीवो द्रव्याणि चैतानि, ज्ञेयदृष्टिरसौ भवेत् ॥२॥ २. भगवान् ने कहा-धर्म (अस्तिकाय), अधर्म (अस्तिकाय) आकाश, काल, पुद्गल और जीव-ये छह द्रव्य हैं, यह ज्ञेयदृष्टि ये छह द्रव्य विश्व-व्यवस्था के संघटक हैं। इनसे संसार के स्वरूप का बोध होता है। विश्व चेतन और अचेतन की संघटना है । संसारी आत्मा स्वतन्त्र होते हुए भी सर्वथा कर्म से स्वतन्त्र नहीं होती। वह कर्म-पुद्गलों के प्रभाव से सतत नाटकीय परिवर्तन करती रहती है। कर्म-मुक्ति का उपाय अगले श्लोक में है। यहां जगत् क्या है इसी का समाधान है। छह द्रव्यों का समवाय संसार है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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