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अध्याय ११ : २३७.
नियमा यमरक्षार्थ, तेषां रक्षा प्रवर्धते ।
यमाभावो न चिन्त्यः स्यात्, तदा धर्मः प्रहीयते ॥४८॥ ४८. नियम यम की सुरक्षा के लिए होते हैं। जब नियमों की सुरक्षा ही मुख्य बन जाती है और यम का अभाव चिन्ता का विषय नहीं रहता, तब धर्म क्षीण होता है ।
यमाः सततमासेव्याः, नियमास्तु यथोचितम्। .. सत्यमीषां विपर्यासे, धर्मग्लानिः प्रजायते ॥४६॥ ४६. यमों का आचरण सदा करना चाहिए और नियमों का देश, काल और स्थिति के औचित्य के अनुसार । जब यम गौण और नियम प्रधान बन जाते हैं, तब धर्म के प्रति ग्लानि उत्पन्न होती है।
मेघ का कथन ठीक है कि धर्म व्यक्ति के जीवन में बड़ा हस्तक्षेप करता है। लोक-जीवन का भवन झूठ पर खड़ा होता है। धार्मिक होने का अर्थ है-सत्य की दिशा में चलना । धार्मिक व्यक्ति के समस्त व्यवहारों में सत्य का प्रतिबिम्ब झल-. कने लगता है । अब वह पहले की तरह चल नहीं सकता, बोल नहीं सकता, लेनादेना नहीं कर सकता, वातचीत नहीं कर सकता। उसे कोई भी कार्य करते हुए यह सोचना होगा कि इससे धर्म की हानि होगी या वृद्धि ? धीरे-धीरे जीवन की असत् प्रवृत्तियां विदा होने लगेंगी। वर्षा से स्नात वनराजि की तरह एक दिन उसका जीवन दीप्तिमान हो उठेगा।
किन्तु पहले ही क्षण में धर्म के इस परिणाम की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए। उसके लिए बड़े उत्साह, धैर्य, त्याग और संघर्षों की आवश्यकता होती है। धर्म का जीवन प्रारम्भ करते ही घर, परिवार, समाज आदि से संघर्ष का सूत्रपात भी हो जाता है । लोग नहीं चाहते कि आप सबसे उदासीन हो जाएं। आपकी उदासी भी दूसरों को पीड़ाकारक बन जाती है। लोक-भय से ही अनेक व्यक्ति उस मार्ग पर चलना छोड़ देते हैं। धर्म की तेजस्विता में कोई संदेह नहीं है, संदेह है व्यक्ति की क्षमता पर। ___धर्म का विकास सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यग् आचरण (चारित्र) पर निर्भर है। इनके अभाव में विकास नहीं, ह्रास होता है। धर्म के जीवन्त सूत्रों की उपेक्षा कर धर्म के कलेवर को जीवित रखा जा सकता है, किन्तु धर्म की आत्मा को नहीं। जितने भी अर्हत्, बुद्ध और परम प्रज्ञा-प्राप्त साधक हुए हैं: उन्होंने मूल पर बल दिया है, गौण पर नहीं।
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