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२३८ : सम्बोधि
आनन्द ने बुद्ध से पूछा-'निर्वाण के बाद आपके शरीर का क्या किया जाए?' बुद्ध ने कहा-'आनन्द ! इसमें सिर मत खपाओ, मैंने जो साधना धर्म दिया है, उसका अभ्यास करो।'
वक्कलि भिक्षु से बुद्ध कहते हैं- 'जैसे यह तुम्हारा अशुचिमय शरीर है, वैसा ही बुद्ध का है। वक्कलि ! मेरे इस शरीर को मत देखो, धर्म-शरीर को देखो। जो मेरे धर्म-शरीर को देखता है वह मुझे देखता है और जो मुझे देखता है वह धर्मशरीर को देखता है।'
महावीर गौतम से कहते हैं- 'गौतम ! सत्य की शोध में प्रमाद मत कर । मेरे से स्नेह मत कर । सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र की आराधना कर मुक्त हो।'
जब बाह्य क्रियाएं और चमक-दमक व्यक्ति को प्रभावित करने लगते हैं तब 'धर्म का मौलिक ध्येय गौण हो जाता है या मौलिक धर्म के प्रति अनुत्साह होने से बाह्य क्रियाओं का महत्त्व बढ़ जाता है। मूल छुट जाता है और बाहरी पकड़ सुदृढ़ हो जाती है। मूल छिप जाता है और गौण ऊपर आ जाता है। जिसकी सुरक्षा के लिए जो होता है, उसकी सुरक्षा प्रमुख हो जाती है और मूल धूमिल हो जाता है।
धर्म की सुरक्षा प्रमुख है। इसी में प्राणिमात्र का हित है। उसके प्रति सजग होना जरूरी है। सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र जितने पुष्ट और सशक्त होंगे, धर्म उतना ही शक्तिशाली होगा । इनके बाहर धर्म नहीं है।
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