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________________ अध्याय ११ : २२१ बाहर निकालता है और तुच्छ को छोड़ देता है, ठीक इसी प्रकार मैं भी देखता हूं, मेरे घर में भी अग्नि की लपटें उठ रही हैं। घर धूं-धूं जल रहा है । वह अग्नि है - वृद्धत्व और मौत की । मैं चाहता हूं तुम्हारी आज्ञा लेकर अपनी महामूल्यवान् आत्मा को बचाना । जिसे दर्शन होता है उसके जीवन में यह अवश्यंभावी घटने वाली घटना है । जो दूसरों को दिखाई नहीं देता, वह उसे दिखाई देता है । अब कैसे वह अपने को 'पर' में उलझाए रख सकता है ? दर्शन के साथ ही ज्ञान की घटना घटती है और उसके साथ ही चारित्र ( स्व में अवस्थित होने का भाव ) जागृत हो जाता है । स्व में स्थित होना तप है और वह पूरी प्रक्रिया भी तप है जिसके द्वारा स्व में अवस्था होता है । संक्षेप में महावीर की यही साधना-पद्धति है । ध्यान दर्शन के लिए है या दर्शन ही ध्यान है । दर्शन उसका केन्द्र है । दर्शन के निष्कर्ष हैं— शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य | शम का अर्थ है - शांति । शांति सम्यग् दृष्टि की झलक है । जिससे यह बोध होता है कि व्यक्ति को भीतर कुछ प्राप्त है । अशांति के जनक क्रोध, अहंकार, राग-द्वेष आदि हैं । सम्यग् दर्शन की स्थिति में इनका अस्तित्व शान्त हो जाता है । संवेग का अर्थ है - दुःख - मुक्ति के लिए तीव्र उत्साह । जैसे-जैसे स्व-धारा Tar वर्धमान होता है वैसे-वैसे साधक के चरण उस दिशा में और अधिक गति-शील हो जाते हैं। मंजिल पर पहुंचे बिना उसे चैन नहीं मिलता । निर्वेद का अर्थ है - काम तृष्णा, भव तृष्णा आदि जो दुःख जनक हैं उनसे पार चला जाना। अब साधक को बाहर में आकर्षण नहीं रहता । सुख या वासनाएं उसे दिग्मूढ़ नहीं बना सकतीं । 'वेद' शब्द का दूसरा अर्थ ज्ञान करें तो यह भी हो सकता है कि अब बाह्य ज्ञान के प्रति उसके मानस में कोई अनुराग नहीं रहता । आत्मज्ञान के अतिरिक्त सब ज्ञान बोझ रूप है। इसलिए दुःख और ज्ञान - दोनों के जाल से वह छूट जाता है । अनुकम्पा अर्थात् करुणा । बुद्ध ने कहा है-ध्यान के बाद यदि करुणा का जन्म न हो तो समझना चाहिए कि कहीं भूल रह गई है । 1 " सव्वजगजीवरक्खणट्टाए भगवया पावयणं सुकहियं " - भगवान ने सब जीवों की रक्षा के लिए प्रवचन दिया है । यह अनन्त कारुणिकता का प्रतीक है । वे देखते हैं - दुःख से व्याकुल हैं प्राणी । अनन्त अनन्त जन्मों से भटक रहे हैं । उनके लिए भगवान शरण बनते हैं, मार्ग-दर्शक बनते हैं और दिव्य नेत्र बनते हैं जिससे आदमी स्वयं को जान सके और समझ सके कि मैं क्यों और किसलिए यहां आया हूं ? आस्तिक्य का अर्थ है- अस्तित्व के प्रति श्रद्धा । स्वयं के साक्षात्कार के बिना स्वयं के प्रति जो श्रद्धा है, वह सिर्फ मानी हुई होती है और दर्शन के अनन्तरः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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