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२२२ : सम्बोधि
जिस श्रद्धा का जन्म होता है, वह अनुभूत होती है। धर्म की यात्रा अनुभूति की यात्रा है, मानने की नहीं। मानने से भ्रान्तियां टूटती नहीं। मिथ्यादर्शन की बेड़ियों को तोड़ने के लिए दर्शनरूपी पुरुषार्थ का हथौड़ा उठाना ही होता है ।।
दर्शन के अनन्तर दूसरा चरण उठता है— स्वयं के बोध के लिए। देखा और और जाना। मैं कौन हूं ? किसने मुझे बांध रखा है ? मैं अपने ही अज्ञान के कारण बंधा रहा। स्वभाव और विभाव की रेखाएं स्पष्ट हो जाती हैं। सम्यग्ज्ञानी विभाव को काट आत्मस्थता के लिए उद्यत हो जाता है।
सम्यग् चारित्र स्व स्थिति है, स्व-रमण है। बस, स्वभाव में ठहरे रहना। स्वभाव से बाहर नहीं जाना। चारित्र का यह अन्तिम कदम है। उससे पूर्व कदम में वे सब साधन निहित होते हैं जिनके माध्यम से वह स्थिति बनती है। प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, तप आदि सब इसमें समाहित किए जा सकते हैं। समाधि स्वरूप की अविच्युति है । यह चारित्र का अन्तिम सोपान है । कर्मों का निरोध, कर्मों का निर्जरण और कर्मों का क्षय कर चारित्र कृतकृत्य हो जाता है।
ज्ञानञ्च दर्शनञ्चैव, चरित्रं च तपस्तथा। एष मार्ग इति प्रोक्तं, जिनः प्रवरदशिभिः ॥१६॥
१६. ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप-इनका समुदय मोक्ष का -मार्ग है । श्रेष्ठ दर्शन वाले वीतराग ने ऐसा कहा है।
ज्ञानेन ज्ञायते सर्व, विश्वमेतच्चराचरम् । श्रद्धीयते दर्शनेन, दृष्टिमोहविशोधिना ॥२०॥
२०. ज्ञान से समस्त चराचर विश्व जाना जाता है । दर्शनमोह की विशुद्धि से उत्पन्न होने वाले दर्शन से उसके प्रति यथार्थ विश्वास होता है।
भावि-दुःखनिरोधाय, धर्मो भवति संवरः।
कृतदुःखविनाशाय, धर्मो भवति सत्तपः ॥२१॥ २१. संवर (चारित्र) धर्म के द्वारा भावी दु.ख का निरोध होता है और तप के द्वारा किए हुए दुःखों का नाश होता है ।
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