SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२० : सम्बोधि विद्वत्ता के साथ आचरण भी आए, यह जरूरी नहीं है, किन्तु सम्यग् ज्ञान के साथ रूपान्तरण निश्चित है। ज्ञान शक्ति है। वह यथार्थस्वरूप आपके सामने प्रस्तुत करेगा। उसे आप स्वीकार करेंगे तो निःसन्देह रूपान्तरित होंगे। अन्यथा उस ओर आप आंख बन्द कर लेंगे। धर्म के वास्तविक स्वरूप-ध्यान से डरने का और कारण क्या है ? वह जितनी कुरूप प्रतिमाएं छिपी हैं उन्हें प्रकाश में लाता है। इसलिए आपका वैसा रहना असंभव हो जाता है। वे मिथ्या प्रतिमाएं खंडित होंगी या फिर आप पीछे हट जाएंगे। ज्ञान से ही जो मुक्ति की बात कहते हैं-वह केवल सत्य के संबंध में सीखे हुए ज्ञान की बात है, न कि साधना द्वारा उपलब्ध ज्ञान की। महावीर के युग में ऐसी मान्यता थी, इसलिए उन्हें यह घोषणा करनी पड़ी कि विविध भाषाओं का बोध आदमी को त्राण नहीं दे सकता। उसे सम्यग् ज्ञान की आराधना करनी होगी। सम्यग्-दर्शन, सम्यग् ज्ञान, सम्यग् आचरण- इस त्रिवेणी में डुबकी लगाकर ही व्यक्ति कल्मष से छूट सकता है। जैनदष्टि से मोक्ष के उपाय हैं-सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान, सम्यग् आचरण और सम्यग् तप । दर्शन सबका आधार है। दर्शन के अभाव में अन्य साधनों की उपादेयता नगण्य है। आधार सुदृढ़ हुआ कि भवन का निर्माण अचिर काल में हो सकता है। दर्शन की स्वीकृति नहीं हो सकती है, उसकी आराधना होती है। वह कोई बाह्य वस्तु नहीं है कि जिसका आदान-प्रदान किया जा सके। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी उपासना करनी होती है। ___ दर्शन का अर्थ है-देखना। प्रश्न होगा कि क्या देखें? जो हम देखते हैं वह भी दर्शन है, किन्तु वह सम्यग् नहीं। क्योंकि उससे हम दृश्य को ही देखते हैं। -सम्यग् दर्शन तब घटित होता है जब आपके सामने कोई दृश्य न हो, जो देखने वाला है उसे आप देखें। वह सम्यग् दर्शन है। सब दृष्टियां खो जाएं, केवल द्रष्टा रहे । शुद्ध निश्चय की भाषा में आचार्यों ने इसे ही सम्यग् दर्शन कहा है। योगसार में लिखा है आत्मा दर्शन, ज्ञान गुण, आत्मा गुण चारित्र । आत्मा संयम, शील, तप, प्रत्याख्यान पवित्र । किसी अन्य आचार्य ने कहा है स्व थी स्व ने जीव जाणता, सम्यग् दष्टि थाय । सम्यग् दृष्टि जीव तो, कर्ममुक्त झट थाय ॥ जड़ और चेतन के मध्य का सघन आवरण सम्यग् दर्शन के द्वारा विनष्ट होता है। सम्यग् दर्शन के आलोक में स्व-पर का स्पष्ट बोध उद्भाषित होता है। आगे का पथ फिर स्वतः सरल और स्पष्ट हो जाता है। मगापुत्र ने अपने मातापिता से कहा- 'जैसे घर में आग लग जाने से गृहस्वामी अपनी बहुमूल्य वस्तुओं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy