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अध्याय १० : २०१
योग्यताभेदतः पुंसां, रुचिभेदो हि जायते।
रुचिभेदाद् भवेद् भेदः, साधनाध्वावलम्बने ॥३३॥ ३३. सब मनुष्यों की योग्यता समान नहीं होती। इसलिए उनकी रुचि भी समान नहीं होती। रुचि-भेद के कारण साधना के "विभिन्न मार्गों का अवलम्बन लिया जाता है।
साधना का मूल स्रोत एक है। वह प्रत्येक साधक में भिन्नता नहीं देखता। भेद होता है बाहरी विशेषता के आधार पर। किसी साधक में श्रुत की विशेषता होती है, किसी में तप की, किसी में ध्यान की, किसी में निर्भयता की, किसी में “विनय की, किसी में कष्ट-सहिष्णुता आदि की। कुछ अपनी साधना में व्यस्त रहते हैं और कुछ अपना और पराया दोनों का हित साधते हैं। यह सब रुचि-भेद है। इससे मूल में अन्तर नहीं आता। बाहरी विशेषताओं को मूल मानने पर भ्रान्ति हो जाती है।
बृद्धाः केचिद् बोधकाः स्युः, केचिद् बुद्धा न बोधकाः। आत्मानुकम्पिनः केचित्, केचिद् द्वयानुकम्पकाः ॥३४॥
३४. कई स्वयं-बुद्ध भी होते हैं और दूसरों को बोध (उपदेश) भी देते हैं। कई स्वयं-बुद्ध होते हैं पर दूसरों को बोध नहीं देते। कई केवल आत्मानुकम्पी होते हैं और कई उभयानुकम्पी (अपनी व दूसरों की-दोनों की अनुकम्पा करने वाले) होते हैं।
क्षपिताशेषकर्मा हि, मुनिर्भवाद् विमुच्यते । मुच्यते चान्यलिङ्गोऽपि, गृहिलिङ्गोऽपि मुच्यते ॥३५॥
३५. अशेष कर्मों का क्षय करने वाला मुनि भव-मुक्त होता है । मुक्त होने में आत्म-शुद्धि की प्रधानता है, लिंग (वेश) की नहीं। जो वीतराग बनता है वह मुक्त हो जाता है, भले फिर वह अन्यलिंगी (जैनेतर साधु के वेश में) हो या गृहलिंगी (गृहस्थ के वेश में) हो। - मुक्ति की आधारशिला है-आत्म-विशुद्धि । आत्म-शुद्धि के लिए वीतरागता की अपेक्षा है। राग-द्वेष से मुक्त वही होता है जो वीतराग है । आचार्य कहते हैं :
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