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२०२ : सम्बोधि
सिताम्बरत्वे न दिगम्बरत्वे, न तर्कवादे न च तत्त्ववादे। न पक्षपाताश्रयणाच्च मुक्तिः, कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव ॥
'मोक्ष न श्वेत वस्त्रों के पहनने में है, न वस्त्रों का त्याग करने में है, न तर्कवाद में है, न तत्त्वचर्चा में है और न पक्षपात का आश्रय लेने में है। मुक्ति है कषाय-विजय में।'
राग, द्वेष और कषाय की स्थिति में मुक्ति नहीं होती, यह ध्र व सिद्धान्त है। गीता में कहा है-'जो लोग अभिमान और मोह से मुक्त हो गए हैं, जिन्होंने आसक्तियों को जीत लिया है, जो निरन्तर अध्यात्म में लीन रहते हैं, जिनकी इच्छाएं शांत हो गई हैं, जो सुख-दुःखात्मक द्वन्द्वों से विमुक्त हैं और जो अमूढ़ हैं वे शाश्वत स्थान को पाते हैं। ____ आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में कहा है-'सिद्ध वे होते हैं जो शुद्ध होते हैं । शुद्धि में ही साधुता है, दर्शन है, ज्ञान है और मुक्ति है।'
__ अमृतचन्द्राचार्य के शब्दों में भी यही है-आत्मा को अशुद्ध करने वाले राग, द्वेष पर-द्रव्य हैं। जो इन्हें छोड़ स्व-आत्मा में रति करता है वह समस्त पर-द्रव्यों से मुक्त हो जाता है । फिर आत्म-ज्योति प्रकट होती है और चैतन्य के आलोक से वह भर जाता है, पूर्ण शुद्ध होकर फिर मुक्त हो जाता है।
राग-द्वेष की मुक्ति के लिए आत्म-बल की अपेक्षा है। इसमें वर्ण, जाति, लिंग, वेश आदि का महत्त्व नहीं है। ये गौण हैं। मोक्ष अवस्था की स्थिति में प्रत्येक मुक्तात्मा में समानता होती है । मुक्ति का द्वार सबके लिए खुला है।
प्रत्ययार्थञ्च लोकस्य, नानाविधविकल्पनम् । यात्रार्थ ग्रहणार्थञ्च, लोके लिङ्गप्रयोजनम् ॥३६॥ ३६. लोगों को यह प्रतीत हो कि ये साधु हैं, इसलिए नाना प्रकार के उपकरणों की परिकल्पना की गई है। जीवन-यात्रा को निभाना और 'मैं साधु हूं', ऐसा ध्यान आते रहना, इस लोक में वेश-धारण के ये प्रयोजन हैं।
प्रश्न होता है कि मुनि के लिए वेश की क्या आवश्यकता है ? प्रस्तुत श्लोक में वेश-धारण के तीन कारण बतलाये हैं :
(१) लोक-प्रतीति, (२) संयम-निर्वाह, (३) स्व-प्रतीति।। ये तीनों कारण मुनि की बाह्य और आन्तरिक पवित्रता के हेतु बनते हैं। १. मुनि को अपने स्व-वेश में देखकर लोगों को यह प्रतीति होती है कि यह
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