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२०० : सम्बोधि
स्वयं बुद्धा भवन्त्येके, केचित् स्युबुद्धबोधिताः । प्रत्येकबुद्धाः केचित् स्युर्बोधिर्नानायना भवेत् ॥ ३२॥
३२. संसार का अन्त करने वालों में कई जीव 'स्वयं बुद्ध' ( उपदेश आदि के बिना स्वतः बोध पाने वाले ) होते हैं, कई 'बुद्धबोधित' (दूसरों के द्वारा प्रतिबुद्ध) होते हैं और कई 'प्रत्येक-बुद्ध' ( किसी एक घटना विशेष से बोध पाने वाले ) होते हैं । इस प्रकार बोधि की प्राप्ति के अनेक मार्ग हैं ।
बोधि का अर्थ है रत्नत्रयी - सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यग् चारित्र । इन तीनों का योग संसार का अन्त करने वाला है । सम्यग् दर्शन सबका मूल है । बोध प्राप्ति सहज नहीं है। वह कुछ व्यक्तियों को बिना उपदेष्टा के प्राप्त हो जाती है । वे 'स्वयंबुद्ध' कहलाते हैं। सभी तीर्थंकर स्वयंबुद्ध होते हैं । यह पूर्व कर्म की अल्पता पर और वर्तमान की महान् तपस्या पर आधारित है ।
कर्म-क्षय के बिना आत्मा की शुद्धि नहीं होती । अशुद्ध आत्मा में धर्म ( बोधि ) का अंकुर फूटता नहीं । दूसरी श्रेणी में वे व्यक्ति आते हैं जो किसी उपदेष्टा के द्वारा धर्म को स्वीकार करते हैं । स्वयंबुद्ध कम होते हैं, अधिकांश व्यक्ति उपदेश से सत्य -मार्ग प्राप्त करते हैं । सत्यासत्य का निर्णय करने में वे स्वतन्त्र होते हैं । उपदेशक उन्हें तत्त्व-दर्शन देते हैं । तत्त्व-ज्ञान को पाकर वे मुक्ति की ओर अपने आप ही प्रेरित होते हैं और दुःखों का अन्त करते हैं । वे बुद्ध-बोधित होते हैं ।
तीसरी श्रेणी के व्यक्तियों को बोधि के लिए बाहरी निमित्त मिलता है । वे कोई एक विशिष्ट घटना से प्रतिबुद्ध हो जाते हैं । वे 'प्रत्येक बुद्ध' कहलाते हैं । मिट्टी कुम्भकार, चाक आदि निमित्त को पाकर घड़े आदि प्रकारों में रूपान्तरित हो जाती है, इसी प्रकार अन्तश्चेतना बाहरी कारणों से प्रबुद्ध हो जाती है । वे हैं निमित्त, न कि उपादान । निमित्त का कोई अस्तित्व नहीं रहता । महात्मा बुद्ध रोगी, वृद्ध और शव का योग पाकर संसार से विरक्त बन गए। महाराज भर्त हरि अमरफल को देख संसार से उद्विग्न हो गए। जैन आगमों में ऐसी कई घटनाएं हैं । भरत चक्रवर्ती शरीर- प्रेक्षा करते-करते अनित्य-भाव में लीन हो गए । नमि राजर्षि --- 'एक चूड़ी का शब्द नहीं होता, 'अनेक होती हैं तब होता है', यह सोच एकत्व - भावना में लीन हो गए। 'जो वृक्ष प्रातः फूल और पत्तों से सुशोभित था, वही अब असुन्दर-सा प्रतीत होता है। जीवन का भी यही क्रम है । पहले सरस लगता है और बाद में नीरस - इसी भावना से नग्गति नृप बोधि को प्राप्त हो गए। ये घटनाएं प्रत्येक बुद्धत्व की हैं ।
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