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________________ १५० : सम्बोधि जहां अस्तित्व रहता है वहां अहिंसा की धारा कैसे प्रवहमान रह सकती है। अहिंसा के अभाव में मानव-जगत् शान्ति से जीवित नहीं रह सकता। इसलिए अहिंसा को त्राण कहा है। शुद्धं शिवं सुकथितं, सुदृष्टं सुप्रतिष्ठतम् । सारभूतञ्च लोकेऽस्मिन्, सत्यमस्ति सनातनम् ॥३७॥ ३७. इस लोक में सत्य ही सारभूत है, वह शुद्ध है, तीर्थंकरों के द्वारा सम्यक् प्रकार से कहा हुआ है, सम्यक् प्रकार से देखा हुआ है, सम्यक् प्रकार से प्रतिष्ठित है और शाश्वत है। भगवान् महावीर ने कहा- 'सच्चं लोगम्मि सारभूयं'--सत्य लोक में सारभूत है। 'सच्च भयवं'--सत्य ही भगवान् है। यह सत्य की महिमा है। प्रश्न होता है कि सत्य क्या है ? इसका उत्तर है- 'तमेव सच्चं निस्संकं जं जिणेहिं पवेइयं'--सत्य वही है जो आप्तपुरुषों द्वारा कथित है। 'निग्गंथं पावयणं सच्चं' -निर्ग्रन्थ व्यक्तियों का जो प्रवचन है, वह सत्य है । सत्य का यह स्वरूप व्यापक और सर्वग्राह्य है। यथार्थ-द्रष्टाओं का दर्शन सत्य है। यथार्थ-द्रष्टा वे होते हैं, जिनके राग-द्वेष और मोह आदि दोष नष्ट हो जाते हैं और जिनका ज्ञान अबाधित होता है। अतीन्द्रिय ज्ञान सत्य का घटक होता है। सत्य किसी सीमा में आबद्ध नहीं होता। वह व्यापक और सार्वजनिक होता है। स्वभाव सत्य है, विभाव असत्य । महातृष्णा प्रतीकारं, निर्भयञ्च निरास्त्रवम् । उत्तमानामभिमतमदत्तस्य विवर्जनम् ॥३८॥ ३८. जो चोरी का वर्जन करता है उसकी तृष्णा बुझ जाती है, वह निर्भय और निरास्रव हो जाता है और ऐसा करना उत्तम पुरुषों द्वारा अभिमत है। अदत्त का शाब्दिक अर्थ है-बिना दिया हुआ ग्रहण करना। यह बहुत स्थूल है। यदि व्यक्ति स्थूल पर स्थिर हो जाए तो सूक्ष्म में प्रवेश नहीं हो पाता। महावीर जिस धरातल पर अदत्त की बात कहते हैं, वह बहुत सूक्ष्म है। इस जगत् में हमारा क्या है ? अस्तित्व के अतिरिक्त सब कुछ पराया है। अस्तित्व की उपलब्धि के अभाव में चोरी से बचना कैसे संभव हो? दूसरों का क्या मानक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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