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मैं योग्य हूं ।
मैं शुद्ध, बुद्ध और परमात्मरूप हूं ।
अध्याय ७ : १४६
अहिंसाराधिता येन, ममाज्ञा तेन साधिता । आराधितोस्मि तेनाहं धर्मस्तेनात्मसात्कृतः ॥ ३४ ॥
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३४. जिसने अहिंसा की आराधना की उसने मेरी आज्ञा की आराधना की है, उसने मुझे आराध लिया है और उसने धर्म को आत्मा में उतार लिया है ।
अहिंसा विद्यते यत्र, ममाज्ञा तत्र विद्यते । ममाज्ञायामहिंसायां न विशेषोस्ति कश्चन ॥ ३५ ॥
३५. जहां अहिंसा है वहां मेरी आज्ञा है । मेरी आज्ञा और अहिंसा में कोई भेद नहीं है ।
शरणमिव भीतानां क्षुधितानामिवाशनम् । तृषितानामिव जलमहिंसा भगवत्यसौ ॥३६॥
३६. यह भगवती अहिंसा भयभीत व्यक्तियों के लिए शरण, भूखों के लिए भोजन और प्यासों के लिए पानी की तरह है ।
महावीर कहते हैं— मेरी आज्ञा और अहिंसा में कोई द्वैत नहीं है । जो आज्ञा है वही अहिंसा है और जो अहिंसा है वही आज्ञा है । अहिंसा और आज्ञा में अंतर नहीं है। अहिंसा और प्रेम में भी अंतर नहीं है। जीसस ने कहा है - 'लव इज गोड' ( Love is god ) प्रेम परमात्मा है । परमात्मा को साध लो प्रेम सध जाएगा। प्रेम को साध लो परमात्मा सध जाएगा। परमात्मा प्रेम का पूर्ण रूप है । अनेक संत प्रेम की भाषा में बोले हैं । किंतु उनका प्रेम किसी सीमा में आबद्ध नहीं था । सीमाबद्ध प्रेम होता तो फिर वह प्रेम घृणा से अछूता नहीं होता, उसके पीछे मिश्रित रूप से घृणा की छाया होती । वह अस्थायी होता, स्थायी नहीं होता । अहिंसा की विधायक भाषा प्रेम है । जैसे-जैसे आत्मा का सर्वोच्च रूप निखरता जायगा, अहिंसा - प्रेम भी विस्तृत और व्यापक बनता चला जाएगा। 'मैं और मेरे' की संकीर्ण सृष्टि निर्मूल हो जाएगी। संकीर्णता, स्वार्थ, घृणा आदि का
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