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अध्याय ७ : १४५
२४. गृहस्थों का धर्म दो प्रकार का होता है-आत्मिक ओर लौकिक। आत्मिक-धर्म के दो प्रकार हैं-संवर और निर्जरा । समाज के द्वारा अभिमत धर्म को लौकिक धर्म कहा जाता है।
धर्म दो प्रकार का है-आत्मिक और लौकिक । सामायिक, संवर, पौषध, त्याग, ध्यान, तपस्या आदि आत्मिक धर्म हैं। इसमें अहिंसा आदि धर्मों का विमर्श और आचरण मुख्य होता है। संक्षेप में आत्माभिमुखी सारी प्रवृत्तियां आत्मिक धर्म के अन्तर्गत आती हैं। लौकिक धर्म का अर्थ है-समाज द्वारा अभिमत आचार। इसमें हिंसा-अहिंसा का विचार मुख्य नहीं होता, मुख्य होता है सामाजिक आचार, नीति । समाज-धर्म समाज-सापेक्ष होता है। वह ध्रुव नहीं होता, परिवर्तनशील होता है। लौकिक धर्म की विचारणा में मोक्ष का विमर्श गौण होता हैं, सामाजिक अभ्युदय का विचार मुख्य होता है।
आत्मशुद्धयं भवेदाधो, देशितः स मया ध्रुवम् । समाजस्य प्रवृत्त्यर्थ, द्वितीयो वय॑ते जनैः॥२५॥
२५. आत्मिक-धर्म आत्मशुद्धि के लिए होता है। इसलिए मैंने उसका उपदेश किया है। लौकिक-धर्म समाज की प्रवृत्ति के लिए होता है। उसका प्रवर्तन सामाजिक जनों के द्वारा किया जाता है।
आत्मधर्मो मुमुक्षूणां, गृहिणाञ्च समो मतः । पालनापेक्षया मेदो, भेदो नास्ति स्वरूपतः॥२६॥
२६. आत्म-धर्म साधु और गृहस्थ दोनों के लिए समान है। धर्म के जो विभाग हैं वे पालन करने की अपेक्षा से किए गए हैं। स्वरूप की दृष्टि से वह एक है, उसका कोई विभाग नहीं होता।
पाल्यते साधुभिः पूर्णः, श्रावकैश्च यथाक्षमम्।
यत्र धर्मो हि साधूनां, तत्रैव गृहमेधिनाम् ॥२७॥ २७. साधु धर्म का पूर्ण रूप से पालन करते हैं और श्रावक उसका पालन यथाशक्ति (एक निश्चित मर्यादा के अनुसार) करते
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