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________________ १४४ : सम्बोधि विवाह करना, व्यापार करना । इन प्रवृत्तियों के बिना गृहस्थाश्रम चल नहीं सकता । इस श्लोक में यही समझाया गया है कि गृहस्थ संपूर्ण रूप से हिंसा का त्याग नहीं कर सकता, क्योंकि एक गृहस्थ के नाते उसे अनेक जिम्मेदारियां निभानी होती हैं। वह भिक्षा से अपना जीवन नहीं चला सकता, अतः उसे व्यापार करना पड़ता है। व्यापार में हिंसा भी होती है। वह वाहनों का उपयोग करता है। आवश्यकतावश छह जीवों का समारंभ भी करता है। उसकी समस्त पापमय प्रवृत्तियों का निषेध नहीं किया जा सकता। हिंसा हिंसा है, परन्तु क्षेत्र या अवस्था भेद से वह विहित आ अविहित होती है। हिंसाविधानं शक्यं न, तेन साऽविहिता मया। अनिवार्या जीविकाय, निरोद्धं शक्यते न तत् ॥२३॥ २३. हिंसा का विधान नहीं किया जा सकता इसलिए वह मेरे द्वारा अविहित है और आजीविका के लिए जो अनिवार्य हिंसा हो तो उसका विरोध नहीं किया जा सकता इसलिए वह अनिषिद्ध है। पूर्ण अहिंसक व्यक्ति की अपनी मर्यादा होती है। वह हिंसा का निषेध और अहिंसा के आचरण का उपदेश देता है। आवश्यक हिंसा का भी अनुमोदन या विधान उसके द्वारा नहीं हो सकता। अहिंसक के सामने आवश्यकता और अनावश्यकता का प्रश्न मुख्य नहीं होता। जीवन और मृत्यु का प्रश्न भी महत्त्वपूर्ण नहीं होता। उसके सामने मुख्य प्रश्न होता है-अहिंसा की सुरक्षा। हिंसा उसे किसी भी हालत में स्वीकार्य नहीं होती। इसलिए वह हिंसा का विधान कर ही नहीं सकता। वह अहिंसा के पालन के लिए प्राणों का विसर्जन भी करने में तत्पर होता है, किन्तु न स्वयं हिंसा करता है और न दूसरों को उस ओर प्रेरित करता है। दूसरी बात यह है कि वह हिंसा न करने का सर्वथा निषेध भी नहीं कर सकता। क्योंकि गृहस्थ जीवन में अनिवार्य हिंसा से बचा नहीं जा सकता। यदि वह उसका निषेध करता है तो उसका कथन अव्यवहार्य बन जाता है। अतः उसे मध्यम-मार्ग का अवलम्बन लेना पड़ता है। द्विविधो गहिणां धर्म, आत्मिको लौकिकस्तथा। संवरो निर्जरापूर्वः, समाजाभिमतोऽपरः ॥२४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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