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अध्याय ७ : १४३
संयमी व्यक्ति की अहिंसा विधेयात्मक और निषेधात्मक-दोनों है। विधेयात्मक अहिंसा को समिति कहते हैं और निषेधात्मक अहिंसा को गुप्ति । अशुभ और शुभ योग के निरोध का नाम गुप्ति है और शुभ योग में प्रवृत्त होने का नाम समिति है । गुप्ति तीन हैं - मनोगुप्ति, वाक्गुप्ति और कायगुप्ति। मुनि क्रमशः मन के अप्रशस्त और प्रशस्त योग का निरोध करे।
विधेयात्मक अहिंसा के पांच रूप हैं : १. ईर्या समिति-देखकर चलना, विधिपूर्वक चलना। २. भाषा समिति--विचारपूर्वक संभाषण करना। ३. एषणा समिति-भोजन-पानी की गवेषणा में सतर्कता रखना। ४. आदान-निक्षेप समिति-वस्तु के लेने और रखने में सावधानी बरतना। ५. उत्सर्ग समिति-उत्सर्ग करने में सावधानी बरतना।
समिति में अशुभ का निरोध और शुभ में प्रवर्तन है। गुप्ति में शुभ का भी 'निरोध होता है । आत्मा का पूर्ण अभ्युदय निरोध से होता है।
अहिंसाया आचरणे, विधानञ्च यथास्थिति।
संकल्पजा-निषेधश्च, श्रावकाय कृतो मया ॥२१॥ २१. श्रावक के लिए मैंने यथाशक्ति अहिंसा के आचरण का विधान और संकल्पजा-हिंसा का निषेध किया है।
अविहिताऽनिषिद्धा च, तृतीया वृत्तिरस्य सा । सर्व-हिंसा-परित्यागी, नासौ तेन प्रवर्तते ॥२२॥
२२. गृहस्थ की तीसरी वृत्ति जो है वह न विहित और न निषिद्ध है। वह सर्व हिंसा का परित्यागी नहीं होता, इसलिए उस वृत्ति का अवलम्बन लेता है।
वृत्तियां तीन प्रकार की होती हैं : १. विहित-जिनका विधान किया गया है, जैसे-धर्म की उपासना करना,
अहिंसा का आचरण करना। २. निषिद्ध-जिनका निषेध किया जाता है, जैसे-मांस का व्यापार न
करना, व्यभिचार न करना आदि । ३. न विहित, न निषिद्ध-जिसका न विधान होता है और न निषेध, जैसे
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