________________
१४६ : सम्बोधि हैं। जो कार्य करने से साघु को धर्म होता है वही कार्य करने से गृहस्थ को धर्म होता है।
अहिंसा गृहस्थ के लिए धर्म हो और साधु के लिए अधर्म अथवा साधु के लिए धर्म हो और गृहस्थ के लिए अधर्म, ऐसा कभी नहीं होता। तात्पर्य यही है कि गृहस्थ का धर्म साधु के धर्म से भिन्न नहीं किन्तु उसी का एक अंश है ।
मुनि और गृहस्थ दोनों का धर्म एक है । अन्तर इतना ही है कि मुनि धर्म का पूर्ण रूप से पालन करते हैं और गृहस्थ उसका आंशिक रूप में । धर्म के विभाग व्यक्ति-व्यक्ति की पालन करने की शक्ति के आधार पर किए गए हैं। उनमें स्वरूपा-भेद नहीं, मात्रा-भेद होता है । मुनि अहिंसा का पूर्ण व्रत स्वीकार करते हैं
और गृहस्थ अपने सामर्थ्य के अनुसार उसका पालन करते हैं। यही धर्म के विभिन्न रूपों का आधार है।
तीर्थङ्करा अभूवन ये, विद्यन्ते ये च सम्प्रति ।
भविष्यन्ति च ते सर्वे, भाषन्ते धर्ममीदृशम् ॥२८॥ २८. जो तीर्थंकर अतीत में हुए, जो वर्तमान में हैं और जो भविष्य में होंगे, वे सब ऐसे ही धर्म का निरूपण करते हैं।
सर्वे जीवा न हन्तव्याः, कार्या पीडापि नाल्पिका । उपद्रवो न कर्तव्यो, नाज्ञाप्या बल-पूर्वकम् ॥२६॥ न वा परिगृहीतव्या, दास-कर्म-नियुक्तये।
एष धर्मो ध्रुवो नित्यः, शाश्वतो जिनदेशितः ॥३०॥ २६-३०. सब जीवों का हनन नहीं करना चाहिए, न उन्हें किंचित् पीड़ित करना चाहिए, न उपद्रव करना चाहिए, न बलपूर्वक उन पर शासन करना चाहिए और न दास बनाने के लिए उन्हें अपने अधीन रखना चाहिए-यह धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है और वीतराग के द्वारा निरूपित है।
न विरुध्येत केनापि, न बिभियान्न भावयेत् । अधिकारान्न मुष्णीयान्न जातेगर्वमुद्वहेत् ॥३१॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org