SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३४ : सम्बोधि इस श्लोक में सत्य की सुन्दरतम परिभाषा दी गई है। सत्य क्या है-इसका स्वरूप-निर्णय पदार्थ के स्वरूप से नहीं हो सकता। वह वक्ता की निष्कषाय वत्ति से होता है। 'सत्य वही है जो वीतराग द्वारा कथित है'---यह परिभाषा सार्वजनिक है। इस परिभाषा को समझने के लिए वीतराग के स्वरूप को जानना आवश्यक होता है। वीतराग वह है जिसके चारों कषाय और मोह का आवरण नष्ट हो चुका है। ___ अयथार्थ भाषण के हेतु हैं- राग, द्वेष और मोह । जिनका लक्ष्य आत्महित है, जो निःस्वार्थ हैं, वीतराग हैं और कृतकृत्य हैं, वे कभी अयथार्थ भाषण नहीं करते। परंपरा और मान्यता के मोह से मूढ़ व्यक्ति अयथार्थ भाषण भी करते हैं । उनमें अपनी प्रतिष्ठा और कीति का मोह होता है। उन बाह्य उपाधियों से मूढ़ व्यक्ति अयथार्थ भाषणों और आचरणों में संलग्न हो जाते हैं। लेकिन जो यह मानते हैं कि मेरा उत्थान इनसे नहीं, स्व-आत्मा से है, वे प्राणों का बलिदान करके भी सत्य की रक्षा करते हैं। आज्ञायामरतियोगिन्, अनाज्ञायां रतिस्तथा। मा भूयात्ते क्वचिद् यस्मादाज्ञाहीनो विषीदति ॥४॥ ४. हे योगिन् ! आज्ञा में तेरी अरति (अप्रसन्नता)और अनाज्ञा में रति (प्रसन्नता) कहीं भी न हो, क्योंकि आज्ञाहीन साधक अन्त में विषाद को प्राप्त होता है। अपरा तीर्थकृत् सेवा, तदाज्ञापालनं परम् । आज्ञाराद्धा विराद्धाच, शिवाय च भवाय च ॥५॥ ५. तीर्थंकर को पर्युपासना की अपेक्षा उनकी आज्ञा का पालन करना विशिष्ट है । आज्ञा की आराधना करने वाले मुक्ति को प्राप्त होते हैं और उससे विपरीत चलने वाले संसार में भटकते हैं। आज्ञायाः परमं तत्त्वं, राग-द्वेष-विवर्जनम् । एताभ्यामेव संसारो, मोक्षस्तन्मुक्तिरेव च ॥६॥ ६. आज्ञा का परम सार है-राग और द्वेष का वर्जन । ये ही संसार (या बन्धन) के हेतु हैं और इनसे मुक्त होना ही मोक्ष है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy