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अध्याय ७ : १३३
आत्मा के विशुद्ध स्वरूप का चिन्तन करो।
भेद-दृष्टि से शास्ता और शास्त्र दो हैं और अभेददृष्टि से एक। आज्ञा का अनुसरण वीतराग का अनुसरण है और वीतराग का अनुसरण आज्ञा का अनुसरण है। 'मामेकं शरणं ब्रज'--एक मेरी शरण में आ-गीता के इस वाक्य की भी यही ध्वनि है। भगवान् कहते हैं--आज्ञा की कसौटी पर खरा उतरने वाला ही मेरा धर्म है और मेरा तप है। यह अभेदोपचार है। ___आग्रह के दो रूप हैं-सत्य और मिथ्या। मिथ्या आग्रह बौद्धिक जड़ता है। मिथ्या आग्रही अपने मान्यता के घेरे से मुक्त नहीं हो सकता। 'मेरा धर्म है वही सत्य है'-मिथ्या आग्रही व्यक्ति में इसकी अधिकता होती है । वह अपना ही राग आलापता है । सत्याग्रही में यह नहीं होता। वह नम्र होता है, सरल होता है, सत्य को देखता है, सुनता है, मस्तिष्क से तोलता है और सत्य को स्वीकार करता है। आत्मा का सान्निध्य उसे प्राप्त होता है। वह आग्रही नहीं होता। उसका घोष होता है-जो सत्य है वह मेरा है।
वीतरागेण यद् दृष्टमुपदिष्टं समर्थितम् ।
आज्ञा सा प्रोच्यते बुद्धभंव्यानामात्मसिद्धये ॥२॥ २. वीतराग ने जो देखा, जिसका उपदेश किया और जिसका समर्थन किया वह आज्ञा है-ऐसा तत्त्वज्ञ पुरुषों ने कहा है। आज्ञा भव्य जीवों की आत्मसिद्धि का हेतु है ।
आचार्य गुणभद्र ने आत्मानुशासन में भव्य की परिभाषा देते हुए लिखा हैजो यह सोचता है कि मेरे लिए क्या कुशल है, जो दुःख से बहुत घबराता है, जो मुख का गवेषक है, जो बुद्धि के गुणों से सम्पन्न है, जो श्रवण और चिन्तन करता है, जो अनाग्रही होता है, जो धर्म-प्रिय होता है और जो शासन के योग्य होता है, वह भव्य है । जो भव्य होता है वही आत्म-साक्षात्कार कर सकता है।
तदेव सत्यं निःशङ्क, यज्जिनेन प्रवेदितम् । राग-द्वेष-विजेतृत्वाद्, नान्यथा वेदिनो जिनाः ॥३॥
३. जो जिन (वीत राग) ने कहा वही सत्य और असंदिग्ध है। वीतराग ने राग और द्वेष को जीत लिया, इसलिए उनका ज्ञान अयथार्थ नहीं होता और वे अयथार्थ तत्त्व का निरूपण नहीं करते।
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