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________________ अध्याय ७ : १३५ जैन दर्शन में राग-द्वेष को बंधन का हेतु माना है। भगवान् महावीर ने कहा है.---'रागो य दोसो बिअ कम्मबीयं-सभी कर्मों के ये दो उपादान हैं। इनसे कर्मबंध होता है और कर्मबंध से जीव विभिन्न योनियों में चक्कर काटता है। जब ये दोनों नष्ट हो जाते हैं तब वीतराग-दशा की प्राप्ति होती है। यही मोक्ष है।। तीर्थंकरों की आज्ञा है-अस्तित्व का बोध करना। में कौन हूं ? इसे जानो। राग-द्वेष जब मेरे से अन्यथा है तब वे मुझे कैसे परिचालित कर सकेंगे? जब तक मैं इन्हें 'स्व' मानता हूं तब तक ही ये मुझे अपना क्रीडांगण बनाकर अठखेलियां करते रहते हैं। स्वयं के अस्तित्व की पहचान हो जाने पर इनका मन्दिर स्वतः उजड़ने लगता है। स्व-बोध की साधना में जो उतरता है वही तीर्थंकर की आज्ञा का सम्यग् आराधक है । बुद्ध के शिष्य आनन्द ने पूछा--भगवन् ! हम आपके शरीर की पूजा-अर्चना कैसे कर सकते हैं ? बुद्ध ने कहा-आनन्द ! मल-मूत्र से भरा जैसे तुम्हारा शरीर है, वैसा ही मेरा है। इस अशुचि शरीर की पूजा से कोई फायदा नहीं। मेरी सेवा करनी है तो मेरे धर्म-शरीर की सेवा करो। 'जो धर्म को देखता है वह मुझे देखता है। मैंने जो मार्ग-दर्शन दिया है उसका अभ्यास, आचरण करो, यही मेरी सेवा है।' गौतम महावीर के प्रिय शिष्य थे। वे महावीर के शरीर से प्रतिबद्ध थे। व्यक्तित्व में अनुरक्त थे । अनेक साधक उनकी उपस्थिति में बुद्धत्व, सिद्धत्व और कवल्य को उपलब्ध हो गए, किंतु गौतम नहीं हुए । गौतम इस तथ्य को नहीं समझ सके कि इसका कारण मैं स्वयं हूं। मुझे जो राग-द्वेष की विमुक्ति का अभ्यास करना चाहिए वह मैं नहीं कर रहा हूं। महावीर के प्रति मेरा आसक्ति का भाव ही मेरे अवरोध का कारण है। जैसे ही उसे हटाया, गौतम केवल मन्दिर में ही प्रतिष्ठित हो गए। __ आज्ञा और अनाज्ञा के प्रति हमारा स्पष्ट विवेक होना चाहिए । आज्ञा धर्म है और अनाज्ञा अधर्म-ये शब्द ठीक हैं, तथ्ययुक्त हैं किंतु आचरण के अभाव में केवल शब्दों से सत्य का साक्षात्कार नहीं होता। सत्य की आराधना के लिए प्रत्येक व्यक्ति अपने अंतस्तल को प्रयोगशाला बनाए और स्वयं में प्रयोग करे, सचाई को समझे । अन्यथा तीर्थङ्करों की उपासना कैसे की जा सकेगी? उनकी उपासना रागद्वेष से मुक्ति के अतिरिक्त और है ही क्या ? मेरा धर्म आज्ञा में है इसके अभिप्राय को समझना होगा । आज्ञा की आराधना मुक्ति है और विराधना संसार । आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है - अर्हत् वाणी का सार सिर्फ इतना ही है कि आस्रव वासना चंचलता, प्रवृत्ति संसार का हेतु है और संवर [निवृत्ति, निरोध, अक्रिया] मोक्ष का हेतु है । तीर्थङ्कर, बुद्ध तथा आत्मोपलब्ध व्यक्ति का एकमात्र यही उपदेश होता है कि सम्वोधि [स्वभाव] को प्राप्त करो। जीवन जा रहा है। मानव सम्बाधि को जाने, इस में ही उसका कल्याण निहित है। तीर्थंकर की एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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