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________________ अध्याय ६ : ११६ क्रोधं मानञ्च मायाञ्च, लोभञ्च कलहं तथा । अभ्याख्यानञ्च पैशुन्यं, श्रयन्ते मोहसं वृताः ॥६॥ ६. वे मोह से आच्छन्न होने के कारण क्रोध, मान, माया, लोभ, कलह, अभ्याख्यान (दोषारोपण) और चुगली का सेवन करते हैं। गर्भान्ते गर्भमायान्ति, लभन्ते जन्म जन्मनः । मृत्योमृत्युञ्च गच्छन्ति, दुःखाद् दुःखं व्रजन्ति च ॥७॥ ७. वे गर्भ से गर्भ को, जन्म से जन्म को, मृत्यु से मृत्यु को और दुःख से दुःख को प्राप्त होते रहते हैं। समस्त मानव जगत् को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है (१) आत्मवादी (आस्तिक) (२) अनात्मवादी (नास्तिक) (३) आत्मगवैषी या आत्मोपलब्ध । आत्मोपलब्ध व्यक्ति के लिए 'आत्मा है' यह मान्यता का विषय नहीं रहता। उसके लिए आत्मानुभव अन्य पदार्थों की भांति प्रत्यक्ष है। जो आत्म-खोजी हैं वे भी मानकर संतुष्ट नहीं होते । वे उसकी प्राप्ति के लिए कटिबद्ध होते हैं। आत्मा उनके लिए छुई-मुई की तरह कभी प्रत्यक्ष होती है और कभी अप्रत्यक्ष । जलराशि पर पड़ी काई को हटाने पर आकाश की नीलिमा अप्रत्यक्ष नहीं रहती, लेकिन पुन: सेवाल के फैल जाने पर वह गायब हो जाती है। ठीक साधनाशील व्यक्ति के जीवन में यही क्रम चलता है, जब तक सर्वथा विजातीय अणुओं का निर्मलन नहीं होता। जैसे ही वे हटते हैं, आत्मा का सूर्य अपनी प्रकाश-गोद में उसे आवेष्टित कर लेता है। आस्तिक सिर्फ आत्म-प्राप्त व्यक्ति की वाणी में आश्वस्त हो जाता है । वह कहता है-'आत्मा है' किन्तु स्वाद नहीं चखता। वह धर्म को अच्छा मानता है। धर्म के फल के प्रति आकर्षण होता है और धर्मिक विधि-विधानों का अनुसरण भी करता है। लेकिन धर्म के प्रत्यक्ष दर्शन की कठोरतम साधना पद्धति का अनुगमन नहीं करता और न वह इन्द्रिय-विषयों से भी पराड़ मुख होता है । इन्द्रियविषय भी उसे अपनी ओर खींचते हैं और धर्म का आकर्षण भी। धार्मिक जीवन का अर्थ होता है--विषयों के प्रति सर्वथा अनाकर्षण । विषयों के सम्बन्ध-विच्छेद नहीं किन्तु आसक्ति का विच्छेद । धार्मिक व्यक्ति केवल विषयों से ही विमुख नहीं होता, अपितु कर्म-बंध के स्रोतों के प्रति उदासीन हो जाता है। राग-द्वेष और कषाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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