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११८ : सम्बौधि
कहते हैं-न आत्मा है, न मोक्ष है, न धर्म है, न अधर्म है, न पुण्य है, न पाप है और न उसका फल भी है । संसार के संबंध में वे वर्तमान जगत् को ही प्रमुखता देते हैं। खाओ, पीओ और आराम करो-इतना ही है जीवन का लक्ष्य उनकी दृष्टि में। पंचभूतों से आत्मा नाम का तत्त्व उत्पन्न होता है और पंचभूतों में ही वह विलीन हो जाता है। पंचभूतों के अतिरिक्त और कुछ नहीं है, इसलिए वर्तमान जीवन ही उनके लिए सब कुछ है । स्वर्ग, नरक, पुण्य, पाप आदि न होने से केवल वर्तमान सुख की उपलब्धि ही वास्तविक है। यदि पुण्य, पाप आदि की सत्ता वास्तविक है तो नास्तिकों का क्या होगा ? उनका भविष्य कितना अंधकारमय और दुःखपूर्ण होगा! क्षणिक वासना-तृप्ति के लिए क्रूर होना समाज, परिवार और राष्ट्र के लिए भी हितकारक नहीं है।
नास्तिकों की क्रूरता को देख आचार्य सोमदेव ने राजा के लिए कहा है किउसे नास्तिक दर्शन का विद्वान होना चाहिए। जो राजा उसे जानता है वह राष्ट्र के कष्टों का उन्मूलन कर सकता है। नेता यदि मदु होता है तो उस पर अनेक व्यक्ति चढ़ आते हैं, जब चाहे तब उसे दवा देते हैं। अन्यायों को कुचलने के लिए बिना कठोरता के काम नहीं चलता। गीता के सोलहवें अध्याय में जो आसुरी स्वभाव का वर्णन है, वह नास्तिकों का ही स्पष्ट चित्र प्रस्तुत करता है।
प्रत्यायान्ति न जीवाश्च, न भोगो कर्मणां ध्र वः । इत्यास्थातो महेच्छाः स्युर्महोद्योगपरिग्रहाः॥४॥
४. जीव मरकर वापस नहीं आते (फिर से जन्म धारण नहीं करते) और किए हुए कर्मों का फल भुगतना आवश्यक नहीं होताइस अवस्था से उनमें महत्त्वाकांक्षाएं पनपती हैं । वे बड़े परिमाण में उद्योग या व्यापार करते हैं और प्रचुर-मात्रा में धन का संग्रह करते हैं।
निःशीलाः पापिका वृत्ति, कल्पयन्तः प्रवंचनाः।
उत्कोचना विमर्यादा, मिथ्यादण्डं प्रयुञ्जते ॥५॥ ५. वे शील-व्रत-रहित होते है, पापपूर्ण आजीविका करते हैं, दूसरों को ठगते हैं, नियन्त्रण और मर्यादा-विहीन होते हैं और मिथ्यादण्ड का प्रयोग करते हैं-निरर्थक हिंसा करते हैं।
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