________________
१२० : सम्बोधि
चतुष्टय भी उसके तनुतम होते चले जाते हैं। उसके जीवन में अनुकम्पा, सहिष्णुता, सौहार्द, सत्यता, सरलता, सन्तोष, विनम्रता आदि गुण सहज उद्भावित होने लगते हैं। जीवन में धर्म का अवतरण नहीं होता, वहां उपरोक्त स्थितियों का दर्शन नहीं होता। इससे स्पष्ट अनुमान किया जा सकता है कि धर्म का अभी अन्तस्तल से स्पर्श नहीं हुआ है। फिर भी वह धर्म-विहीन नास्तिक व्यक्ति की भांति कर नहीं होता। धर्म-अधर्म के फल के प्रति उसके मानस में आस्था होती है, लोक-भय होता है।
नास्तिक के लिए आत्मा और धर्म का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता। वह मानने और जानने-दोनों से दूर होता है। उसकी आस्था का केन्द्र केवल ऐहिक विषय होता है। अर्थ और काम- ये दो ही उसके जीवन के ध्येय होते हैं । वह इन्हीं की परिधि पर जीता हैं और मरता है। ये कैसे संवद्धित हों, उसका जीवन इन्हीं के लिए है। इनके संरक्षण और संवर्द्धन में कौशल अर्जन करता है और इनके लिए कृत्य और अकृत्य की मर्यादा के अतिक्रमण में भी वह संकोच नहीं करता। ऐसे व्यक्ति धर्म की दृष्टि से तो अनुपादेय हैं ही किन्तु सामाजिक और राजनैतिक दृष्टि से भी कम गर्हणीय नहीं होते। उपरोक्त श्लोकों में उनकी जीवन-चर्या का ही प्रतिबिम्ब है।
आत्मा में विश्वास करने वाला व्यक्ति प्रत्येक आत्मा की स्वतन्त्रता में विश्वास करता है । उसे सुख प्रिय है तो वह यह भी मानता है कि औरों को भी सुख प्रिय है । इसलिए वह अपने सुख के लिए दूसरों का सुख छीनने में क्रू र नहीं बन सकता।
आजीविका आदि में भी उसका ध्येय रहता है-धर्म-पूर्वक व्यवसाय करना। हिंसा, असत्य आदि का प्रयोग वह जीवन में कम से कम करना चाहेगा। अनात्मवादी की दृष्टि में धर्म कुछ नहीं है, इसलिए सत्कर्म में उसका विश्वास नहीं होता। वह शरीर की भूख को ही शान्त करने में व्यस्त रहता है, जिसका परिणाम वर्तमान में किंचित् सुखद हो सकता है किन्तु वर्तमान और भविष्य दोनों ही उसके लिए दुःखद बनते हैं।
क्रियावादिषु चामीभ्यस्तर्कणीयो विपर्ययः । अप्येके गृहवासाः स्युः, केचित् सुलभबोधिकाः ॥८॥
८. आत्मवादियों की स्थिति उनसे नितान्त विपरीप होती है। वे घर में रहते हुए भी धर्मोन्मुख होते हैं-सुलभबोधि होते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org