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अध्याय ५ : १११
जैन दर्शन का सारा चिंतन आत्मा की परिक्रमा किए चलता है। आत्मा का ज्ञान ही सम्यग् ज्ञान है। आत्मा पर आस्था ही सम्यग् दर्शन है। आत्म-प्राप्ति की प्रवृत्ति ही सम्यग् चारित्र हैं।
आचारांगसूत्र में कहा है-'जे एगं जाणई से सव्वं जाणई'-जो एक को (आत्मा को) जानता है, वह सबको जानता है।
आत्म-विजय ही परम विजय है । आत्मा को रखते हुए देह की रक्षा की जाए, वह देह-रक्षा भी संयम है। आत्मा को गंवाकर देह-रक्षा करना साधक के लिए इष्ट नहीं होता। आत्मा की सुरक्षा और अरक्षा सुख और दुःख का हेतु हैं। इस लिए आत्मा को जानो, आत्मा को वश में करो, यही धर्म का सार है। भगवान महावीर ने कहा है :
अप्पा खलु संययं रक्खियव्वो, सविदिएहिं सुसमाहिएहिं। अरक्खिओ जाइपहं उवेइ, सुरक्खिओ सव्वदुहाण मुच्चइ ॥
-सभी इन्द्रियो को सुसमाहित कर आत्मा की सतत रक्षा करो; अरक्षित भात्मा जन्म-मरण को प्राप्त होता है और सुरक्षित आत्मा दुःखो से मुक्त हो जाता है।
मोक्षाभिलाषः संवेगो, धर्मश्रद्धाऽस्ति तत्फलम् ।
वैराग्यञ्च ततस्तस्माद, ग्रन्थिभेदः प्रजायते ॥३५॥ ३५ व्यक्ति में पहले मोक्ष की अभिलाषा अर्थात् संवेग होता है । संवेग का फल है धर्म-श्रद्धा । जब तक व्यक्ति में मुमुक्षुभाव नहीं होता तब तक धर्म के प्रति श्रद्धा नहीं होती। धर्म-श्रद्धा का फल है वैराग्य । कोई भी व्यक्ति पौद्गलिक पदार्थों से तब तक विरक्त नहीं होता, जब तक उसकी धर्म में श्रद्धा नहीं होती। वैराग्य का फल है ग्रन्थि-भेद । आसक्ति से जो मोह की गांठ घुलती है, वह वैराग्य से खुल जाती है।
भिन्ने ग्रन्थौ दृढ़ाऽबद्धे, दृष्टिमोहो विशुद्ध यति ।
चारित्र्यञ्च ततस्तस्मात्, शीघ्र मोक्षो हि जायते ॥३६॥ ३६ दृढ़ता से आबद्ध ग्रन्थि का भेद होने पर 'दर्शन-मोह' की
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