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११२ : सम्बोधि
वशुद्धि होती है-दृष्टिकोण सम्यक् बन जाता है। इसके पश्चात् चारित्र की प्राप्ति होती है । चारित्र की पूर्णता प्राप्त होने पर मोक्ष की उपलब्धि होती है।
मोह संसार है ओर निर्मोह मुक्ति । मूढ़ व्यक्ति कहता है, "यह मेरा है, यह मेरा नहीं है। यह मैंने पा लिया है, यह मुझे पाना है । यह काम मैंने कर लिया है और यह करना शेष है।" वह इसी में व्यस्त रहता है। वास्तविक प्राप्य क्या है इसे नहीं जान पाता । वह बन्धनो का जाल बना उसी में फंसा रहता है । ____ अनादि-अनन्त संसार में घूमते हुए जब कभी आत्म-सामीप्य प्राप्त होता है तब सत्य का दर्शन होता है। आलोक की एक किरण भीतर को प्रकाशित करना चाहती है, मोह बंधन प्रतीत होने लगता है। यहीं से मनुष्य में मुमुक्षु-भाव की अभीप्सा होती है, जिसे संवेग कहते हैं । संवेग का फल है-धर्म-श्रद्धा । जब तक व्यक्ति में मोक्ष की अभिलाषा नहीं होती तक तक धर्म के प्रति श्रद्धा नहीं होती। धर्म श्रद्धा का फल है-वैराग्य । कोई भी व्यक्ति पौद्गलिक पदार्थों से तब तक चिपका रहता है जब तक उसकी धर्म में श्रद्धा नहीं होती। सुखाभास में ही सत्यसुख की कल्पना मान सुख मानने लगता है। वैराग्य के उदय होने पर यथार्थ आनंद का अनुभव करने लगता है। स्व में श्रद्धा स्थिर हो जाती है । व्यक्ति अनासक्त बन जाता है। मोह की गांठ वहीं घुलती है जहां आसक्ति है। वैराग्य से वह खुल जाती है । ग्रन्थि-भेद वैराग्य का फल है।
जब दीर्घकालीन मोह की गांठ शिथिल हो जाती है, तब मोह का आवरण हटने लगता है। आवरण-विलय के तीन रूप हैं :
१. पूर्ण विलय होना। २. सर्वथा उपशान्त होना-दब जाना । २. कुछ क्षीण और कुछ उपशांत होना ।
इसके आधार पर पहली अवस्था क्षायिक सम्यक्त्व है। दूसरी उपशम सम्यक्त्व और तीसरी क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है।
सम्यक्त्व-प्राप्ति के बाद चारित्र की प्राप्ति होती है। कोरा चारित्र आत्मशून्य शरीर का शृंगार है। चारित्र का अर्थ है--आत्मा को विजातीय तत्त्वों से सर्वथा रिक्त करना। इससे आत्मा अपने स्वरूप में अधिष्ठित हो जाती है। साध्यसिद्धि का मूल सम्यक्त्व है। जितनी भी आत्माएं परमात्म-पद में अधिष्ठित हुई है; होंगी, और होती हैं, वह सब सम्यग् दर्शन का प्रभाव है। चारित्र उस मूल को पोषण देकर पल्लवित और पुष्पित कर देता है। उसकी चरम परिणति हैमुक्ति ।
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