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“११० : सम्बोधि
३३. जो शरीर को स्थिर बनाकर तथा पर्यङ्कासन की मुद्रा में सीधा-सरल बैठकर नाक के अग्रभाग में या किसी दूसरी पौद्गलिक वस्तु में दृष्टि को स्थापित करता है, वह अपने स्वरूप को पा लेता है।
ब्यक्ति अपने प्राप्य के प्रति प्रतिपल प्रयत्नशील रहे तो वह अवश्य प्राप्त होता है। गति की शिथिलता चरणों को कमजोर बना देती हैं। अथक प्रयत्न से भी कुछ भी असाध्य नहीं है। साधक आत्मोन्मुख होकर बढ़ता है। वह चाहता है, लक्ष्य को हस्तगत करना, लेकिन बाधाएं उसे प्रताड़ित करती हैं। बाधाएं हैंमोह, ममत्व, घृणा, राग, मानसिक चपलता, विषय-प्रवृत्ति आदि-आदि। साधक इन्हें परास्त किए बिना सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। आत्म-स्वरूप की प्राप्ति में ये विघ्न डालते हैं। आत्म-साक्षात्कार की एक छोटी-सी प्रक्रिया है। उसके -सहारे हम लक्ष्य तक पहुंच सकते हैं । प्रत्येक साधक में निम्न गुण आवश्यक हैं :
१. लक्ष्य में दृढ़ आस्था। २. लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पण । ३. सतत प्रयत्न और दीर्घकालीन अभ्यास । ४. आसन का अभ्यास, शरीर-स्थैर्य । ५. वाक्-संयम। ६. सत् संकल्पों से मन को भावित करना। ७. चित्त-निरोध।
आत्मा वशीकृतो येन, तेनात्मा विदितो ध्र वम् ।
अजितात्मा विदन् सर्वमपि नात्मानमृच्छति ॥३४॥ ३४ जिसने आत्मा को वश में कर लिया, उसने वास्तव में आत्मा को जान लिया । जिसने आत्मा को नहीं जीता, वह सब कुछ जानता हुआ भी आत्मा को नहीं पा सकता ।
प्रस्तुत श्लोक में ज्ञान और क्रिया के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है।
ज्ञान आत्मा का स्वरूप है । वह संसार दशा में आवृत रहता है। उसकी शुद्धि के लिए चारित्र की अपेक्षा होती है। चारित्र साधन है, साध्य है आत्म-स्वरूप का प्रादुर्भाव । साध्य की दृष्टि से ज्ञान का स्थान पहला है और चारित्र का दूसरा। साधन की दृष्टि से चारित्र का स्थान पहला है और ज्ञान का दूसरा।
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