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________________ १०० : सम्बोधि ____ अहिंसा का अपना गुण है, अपना कार्य है और हिंसा का अपना। हिंसा और अहिंसा दोनों के दो मार्ग हैं। 'आचार्य भिक्षु' ने कहा है---पूरब ने पच्छिम रो मार्ग, किण विध खावै मेल। पूरब और पश्चिम के पथ संभवतः मिल सकते हैं, किन्तु अहिंसा और हिंसा का मार्ग नहीं मिल सकता। अहिंसा स्वभाव- स्वगुण की संरक्षिका है, पर पदार्थों की नहीं। पर का स्वीकरण, संवर्धन और संरक्षण अहिंसा से संभव नहीं। अहिंसक अपनी सुरक्षा का प्रमाण प्रस्तुत कर सकता है। वह जानता है कि मेरी रक्षा बाहर से नहीं होती। बाहर से शरीर को और पदार्थों को बचाया जा सकता है, किन्तु चेतना को नहीं । और जिसे हम बाहर से सुरक्षित करते हैं वह भी सदा के लिए नहीं। यह सब जानते हैं कि जो कुछ है वह एक दिन विनष्ट होने वाला है। यूनान के सम्राट ने एक महान् साधक से पूछा--आप कहते हैं-'आत्मा अमर हैं। इसका प्रमाण क्या है ?' साधक ने कहा---'मैं स्वयं उपस्थित हूं।" सम्राट् समझा नहीं। फिर पूछा। साधक ने कहा-'और प्रमाण मैं क्या दे सकता हं?' सम्राट ने उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े करवाए और साधक प्रत्येक टुकड़े के साथ यह प्रमाण प्रस्तुत करता रहा कि शरीर खंडित हो रहा है, किन्तु मैं अब भी पूर्ण हूं। मेरा कुछ भी नष्ट नहीं हो रहा है। ___ नमिराजर्षि के सामने मिथिला नगरी अग्नि की लपटों में जल रही है। वे कहते हैं.-.--'मेरा जो कुछ है वह मेरे पास सुरक्षित है। न उसे अग्नि जला सकती है, न पानी बहा सकता है और न शस्त्र छेद सकते हैं। जो मेरा नहीं है उसे अग्निः जला सकती है, पानी गला सकता है। मिथिला के जलने पर मेरा कुछ नहीं जलता। यह है 'पर' पदार्थों से अपने को पृथक् देख लेना। जहां अपनापन है, ममत्व है, वहीं आसक्ति है, बंधन है। ममत्व-मुक्ति के पश्चात् चिंता का प्रश्न उत्पन्न नहीं होता। पदार्थ विद्यमान है तो प्रसन्नता है और न है तब भी प्रसन्नता है। प्रसन्नता पदार्थों की जहां सहगामिनी होती है वहां उनके विनष्ट होने पर दुःख की सहगामिनी भी हो जाएगी। किन्तु जो निरपेक्ष प्रसन्नता है उसे कोई नहीं छीन सकता। अहिंसा और हिंसा के गुण-धर्मों से. परिचित होना अत्यन्त आवश्यक है। अतीतै विभिश्चापि, वर्तमानः समैजिनः । सर्वे जीवा न हन्तव्या, एष धर्मो निरूपितः ॥१६॥ १६. जो तीर्थकर हो चुके, होंगे या हैं, उन सबने इसी अहिंसध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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