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________________ अध्याय ५ : ११ अनुभूति में हिंसा का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है। उसका अन्तःकरण कलुषता, घृणा, राग, द्वेष, मोह, ममत्व से विमुक्त हो जाता है। स्वगुणों का प्रवाह प्रतिक्षण प्रवाहित होने लगता है। स्वं वस्तु स्वगुणा एव, तस्य संरक्षणक्षमाम् । अहिंसां वत्स ! जानीहि, तत्र हिंसाऽस्त्यकिञ्चना ॥१६॥ १६. अपना गुणात्मक स्वरूप ही अपनी वस्तु है। वत्स ! अहिंसा उसी का संरक्षण करने में समर्थ है। आत्म-गुण का संरक्षण करने में हिंसा अकिंचित्कर है, व्यर्थ है । हिंसा मनुष्य का स्वधर्म नहीं है, विधर्म है। अहिंसास्वधर्म है। पर-धर्म में प्रवेश करने की अपेक्षा स्वधर्म में मृत्यु भी अच्छी है। यह आलोक स्वरूप है। जो जिसका गुण है, वह उसी की सुरक्षा कर सकता है, दूसरा नहीं। हिंसा हिंसा को बढ़ावा देती है और हिंसा की ही रक्षा करती है। उसके शस्त्र एक से एक बढ़कर उत्पन्न होते रहते हैं । अहिंसा में यह नहीं है। उससे आत्मगुण को पोषण मिलता है। वह उसे बढ़ाती है और रक्षा भी करती है। ममत्वं रागसम्भूतं, वस्तुमात्रेषु यद् भवेत् । साहिसाऽऽसक्तिरेषेव, जीवोऽसौ बध्यतेऽनया ॥१७॥ १७. वस्तु मात्र के प्रति राग से जो ममत्व उत्पन्न होता है. वह हिंसा है और वही आसक्ति है, उसी से यह आत्मा आबद्ध होती ग्रहणे परवस्तूनां, रक्षणे परिवर्धने। अहिंसा क्षमतां नैति, सात्मस्थितिरनुत्तरा ॥१८॥ १८. पर-वस्तुओं का ग्रहण, रक्षण और संवर्धन करने में अहिंसा समर्थ नहीं है। क्योंकि वे सब आत्मा से भिन्न अवस्थाएं हैं और अहिंसा आत्मा की अनुत्तर अवस्था है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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