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________________ १८ : सम्बोधि से भिन्न होने पर भी चैतन्य के सादृश्य की दृष्टि से सबसे अभिन्न मानता है, वह अहिंसा को साध लेता है। भय का प्रमुख कारण है-जिजीविषा। शरीर के प्रति अनंत जन्मों का एक मेरेपन का भाव बना हुआ है। 'देहोहमिति या बुद्धिरविद्या सा निगद्यते'-मैं शरीर हूं'- यह भाव अविद्या है। अहिंसा की वास्तविक अनुभूति और आचरण अविद्या के नष्ट होने पर ही होता है। जब तक अविद्या बनी रहती है तब तक भय का सर्वथा निःशेष होना कठिन है। अहिंसा को साधने के लिए अभय होना आवश्यक है। अभ्यास-काल में साधना का लक्ष्य है- अभय और सिद्ध हो जाने पर वह स्वयं तदात्मस्वरूप हो जाता है। अभय के सिद्ध हो जाने पर अहिंसा को पृथक् रूप से साधने की अपेक्षा नहीं रहती। ___ मृत्यु, बुढापा, रोग आदि का भय यह व्यक्त करता है कि प्राणी जीना चाहते हैं। मरना सबसे बड़ा भय है, किन्तु वस्तुवृत्त्या हम उसके अन्तस्तल में प्रविष्ट होंगे तो वहां भी जीवनेच्छा ही दृष्टिगत होगी। क्योंकि उस मरने की मांग के पीछे भी कष्ट है, यथार्थता नहीं है। महावीर ने कहा है-जब तुम मृत्यु और जीवन की एषणा से मुक्त हो जाओ तब तुम चाहे जीओ या मरो, तुम्हारे लिए कोई महत्त्वपूर्ण नहीं है। प्रस्तुत पद्यों में अहिंसा और अभय की सिद्धि की प्रक्रिया प्रस्तुत की है। उसे साध लेने पर अभय और अहिंसा स्वतः सिद्ध हो जाती है। कोई भी व्यक्ति बिना केन्द्र को पकड़े सर्वथा अभय नहीं होता। बाहर से सब कुछ छोड़ता जाए, भीतर कुछ उपलब्ध न हो तो व्यक्ति निराश होकर उसे ही छोड़ देता है। 'डेविड ह्य म' ने डेल्फी के पवित्र मंदिर पर लिखा देखा-KNOW THE SELF-अपने को जानो। वह भीतर गया अपने को जानने के लिए। उसे भीतर सिवाय क्रोध, घृणा, प्रेम, द्वेष, राग आदि के अतिरिक्त कुछ नहीं मिला। भीतर प्रवेश करना उसने छोड़ दिया। इसलिए यहां कहा है-'बाहर की पकड़ ढीली करो, बाहर कुछ भी मत पकड़ो। जितनी सुरक्षा बाहर खोजोगे उतना ही भय, दुःख, अशांति अधिक होगी। भय से मुक्त होने के लिए भीतर उतरो। उस केन्द्र को खोजो जो शाश्वत है। उस केन्द्र से परम प्रीति जब स्थापित होती है तब जो है उसका अनुभव होता है और उसी अनुभूति के साथ भय विलीन हो जाता है। 'मैं अजन्मा हूं', मैं अभय हूं-सिर्फ ऐसा चिन्तन ही नहीं करना है, अनुभति के जगत् में भी प्रवेश करना है। ___ जैसे ही व्यक्ति आत्मवान बनता है वैसे ही वह देखता है जो मैं हूं वही सर्वत्र है,। भेद तो सिर्फ देह का है। पानी की विविधता से सूर्य के प्रतिबिम्ब में क्या फर्क पड़ सकता है ? वह वैसा ही है जैसा निर्मल आकाश । आत्मा की एकत्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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