________________
अध्याय ५ । १०१
का निरूपण किया है । उनका उपदेश है- किसी भी जीव का हनन मत करो।"
इस श्लोक में कहा गया है कि अहिंसां धर्म का प्रतिपादन अनादिकाल से होता रहा है और उसके प्रणेता आत्म-साक्षात्कारी रहे हैं ।
धर्म के प्रणेता अमुक ही हैं-ऐसा कथनकरने वाले धर्म की शाश्वतता और सार्वकालिकता का खंडन करते हैं। अहिंसा धर्म का स्रोत है। वह अनेक रूपों में प्रवाहित होता आया है और रहेगा। वह अनादि है, ध्रव है, नित्य है। धर्म का आलोक जब क्षीण होने लगता है, तब कोई विशिष्ट महापुरुष उसको फिर से प्रज्वलित करता है, इतिहास इसका प्रमाण है। मिलिन्द कहता है कि बुद्ध ने उस प्राचीन मार्ग को ही फिर खोजा है, जो बीच में लुप्त हो गया था। जब बुद्ध भिक्षु के वेश में हाथ में भिक्षा-पात्र लिए भिक्षा मांगते हुए अपने पिता की राजधानी में वापस लौटते हैं तो उनका पिता पूछता है-यह सब क्यों? उत्तर मिलता है-पिताजी ! यह मेरी जाति की प्रथा है। राजा आश्चर्य से पूछता है-कौन-सी जाति ? तब बुद्ध उत्तर देते हैं-बुद्ध जो हो चुके हैं और जो होंगे, मैं उन्हीं में से हूं। और जो उन्होंने किया, और यह जो अब हो रहा है पहले भी हुआ था कि इस द्वार पर एक कवचधारी राजा अपने पुत्र से मिले, राजकुमार से जो तपस्वी वेश में हो । तब भगवान् बोले-इस बात को समझ लो कि समय-समय पर ऐसा तथागत संसार में जन्म लेता है जो पूरी तरह ज्ञान से प्रकाशित होता है। वह पवित्र और योग्य होता है। उसमें ज्ञान और अच्छाई प्रचुर मात्रा में भरी होती है । वह लोकों के ज्ञान के कारण प्रसन्न रहता है। पथभ्रष्ट मयों के लिए वह अद्वितीय मार्गदर्शक होता है। वह देवताओं और मनुष्यों का गुरु होता है।
जैन परंपरा भी यही मानती है कि तीर्थकर किसी एक काल या एक देश में नहीं होते। वे समय-समय पर आते हैं और सत्य का उद्घाटन कर जन-मानस को उस ओर प्रेरित करते हैं । उनका आदि, मध्य और अन्त सुन्दर होता है । सभी अहिंसा आदि शाश्वत तथ्यों का अपने-अपने वातावरण के अनुसार जनभोग्य पद्धति में उपदेश देते हैं। उसमें शब्द-भेद होते हुए भी अर्थ का अभेद होता है।
भागवत में कहा है-सर्वव्यापी भगवान् केवल दानवीय शक्तियों का विनाश : करने के लिए ही नहीं अपितु मल्-मनुष्यों को शिक्षा देने के लिए भी प्रकट होते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org