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८२ : सम्बोधि
'मोटी माया सब तजी, झीणी तजी न जाय । पीर पैगम्बर ओलिया, झीणी सबको खाय ॥
यह सूक्ष्य माया चमत्कारों और विभूतियों की है। इनकी पकड़ में आ जाने के बाद छूटना सहज नहीं होता ।
'आत्मलीनो महायोगी' - यह श्लोक ध्यान की विशेष उपलब्धि की ओर संकेत करता है । ध्यान का सतत, सविधि और श्रद्धा से जो अभ्यास करता है, वह 1. उसके फल से वंचित नहीं रहता । ध्यान का बीज बोओ और काटो, उसमें विलम्ब नहीं होता । एकवर्षीय ध्यान साधक किस प्रकार सुखों की सीमा का अतिक्रमण कर जाता है, आगम के आधार पर इसका चित्रण प्रस्तुत किया गया है ।' गोरक्ष संहिता भी उपरोक्त तथ्य को अभिव्यक्त करती है । कहा है- 'दृढ़ संकल्प वाला साधक ब्रह्मचर्यवान्, परिमितभोजी, समस्त आकर्षणों से मुक्त और योग में दत्त - चित्त होकर एक वर्ष की स्थिति में सिद्धत्व ( योग - सिद्धि) को प्राप्त कर लेता है । इसमें कुछ भी तर्कणीय, विचारणीय नहीं है ।
मानवीय जीवन में सुखों की कल्पना देवताओं से की जाती है । इसलिए यहां बतलाया गया है कि साधक क्रमशः एक महीने यावत् वर्ष भर में साधना के तीब्र अभ्यास से देवताओं के सुखों को पीछे छोड़ सकता है । 'आत्मलीनो महायोगी' - ये दो शब्द साधक की महत्ता के विशेष द्योतक हैं । वह महायोगी है इसलिए कि सम्पूर्ण शक्ति को आत्मा के अतिरिक्त कहीं नियोजित नहीं कर रहा है। ऐसा साधक तुच्छ और भौतिक सुखों के अभिमुख नहीं हो सकता ?" कबीर ने ठीक कहा हैकबीर मारग कठिन है, ऋषि मुनि बैठे थाक | तहां कबीर चढ़ गया, गह सतगुरु का हाथ ॥
ऋषि मुनि जहां थक जाते हैं, कबीर पहुंच जाते हैं तो निःसन्देह इसमें कुछ रहस्य है और वह है - सम्यग् गुरु द्वारा सम्यग् मार्ग-दर्शन ।
ऐन्द्रियं मानसं सौख्यं, साबाधं क्षणिकं तथा । आत्मसौख्यमनाबाधं, शाश्वतञ्चापि विद्यते ॥ ११ ॥
११. इन्द्रिय तथा मन के सुख बाधाओं से पूर्ण और क्षणिक होते हैं। आत्म-सुख बाधारहित और स्थायी होता है ।
सर्व-कर्म-विमुक्तानां जानतां पश्यतां समम् । सर्वापेक्षा- विमुक्तानां सर्व-सङ्गापसारिणाम् ॥ १२ ॥
१. देखें अ० ६ श्लोक २४ से ३५ ।
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