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अध्याय ४ : ५३
मुक्तानां यादृशं सौख्यं तादृशं नैव विद्यते । संपन्नसर्वकामानां नृणामपि सुपर्वणाम् (युग्मम् ) ॥१३॥
१२-१३. जो सब कर्मों से विमुक्त हैं, जो एक साथ जानते-देखते हैं, जो सब प्रकार की अपेक्षाओं से रहित हैं और जो सब प्रकार की आसक्तियों से मुक्त हैं, उन मुक्त आत्माओं को जैसा सुख प्राप्त होता है वैसा सुख सर्व काम-भोगों से सम्पन्न मनुष्यों और देवताओं को भी प्राप्त नहीं होता ।
सुखराशिह मुक्तानां सर्वाद्धा पिण्डितो भवेत् । सोऽनन्तवर्गभक्तः सन्, सर्वाकाशेऽपि माति न ॥ १४ ॥
१४. यदि मुक्त - आत्माओं की सर्वकालीन सुख -राशि एकत्रित हो जाए, उसे हम अनन्त वर्गों में विभक्त करें और एक-एक वर्ग को आकाश के एक-एक प्रदेश पर रखें तो वे इतने वर्ग होंगे कि सारे आकाश में भी नहीं समायेंगे ।
अर्हत् और सिद्ध दोनों के आनन्दानुभव में कोई भेद नहीं है। आनन्द का स्रोत दोनों का एक है । जिसे स्वयं में आनन्द का सागर लहराता दृष्टिगत हो गया, वह अन्यत्र क्या आनन्द भी खोज करेगा ? आनन्द स्वयं के भीतर है, वह बाहर कैसे समुपलब्ध होगा ? उस आनन्द को किसी के द्वारा मापा भी नहीं जा सकता । जो माय है वह कभी अनन्त नहीं हो सकता और न सदा समान हो सकता है । फिर भी कल्पना के द्वारा उसका निदर्शन कराया जा सकता है। लेकिन वह काल्पनिक है, यथार्थ नहीं ।
अनन्त को मापने के लिए हमारे समक्ष कोई अनन्त चीज ही होनी चाहिए । वह है आकाश । आकाश के दो विभाग कल्पित हैं- एक लोकाकाश और दूसरा - अलोकाकाश । लोकाकाश लोक तक सीमित है और अलोकाकाश असीम । अलोकाकाश अनन्त है । किन्तु अनन्त आत्मिक आनन्द के लिए वह भी छोटा पड़ता है। मुक्त आत्माओं की सर्वकालीन सुख - राशि एकत्रित हो जाए, उसे अनन्त वर्गों में विभक्त करें और एक वर्ग को आकाश के एक-एक प्रदेश पर स्थापित करें तो वे इतने होंगे कि पूरे आकाश में नहीं समा सकेंगे। ईशावास्योपनिषद् का निम्नोक्त श्लोक इसका साक्ष्य है—
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